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Showing posts from September, 2019

Dawn

The dark cover of night reluctantly begins to rise out of bed, wanting to savour every one of the last moments of its reign. The call of a Bulbul perched atop an electric wire somewhere pierces through the dark. And with it, a slumbering night receives the first signal that the time to pack up is approaching. The cover of darkness stretches out like there’s no tomorrow but then another Bulbul a few blocks away sends out a counter call. Soon the two early risers are engaged in a war of words, unmindful of the rest of the sleeping world. Then, somewhere further away, a peacock calls out to welcome the approaching day. Closer by, a couple of more little birds energetically chirp up, as if answering a roll call. Heavy footsteps outside declare that the lonesome pre-dawn morning walker is on his way. The minutes tick away but darkness still sprawls out, aided in part by the cloud cover that has overstayed its welcome. However, it’s just a matter of time before the eastern sky

सुबह के मल्टी-टास्किंग सितारे

हमारे यहाँ लोग केवल मॉर्निंग वॉक नहीं करते, उसके साथ-साथ दूसरी गतिविधियों को भी अंजाम देते हैं। एक पंथ दो काज हो जाते हैं, कभी-कभी तो तीन या उससे ज़्यादा भी। सूरज चाचू की पहली किरण को रेस में मात देते हुए ये अपने मल्टी-टास्किंग मिशन पर निकल पड़ते हैं। कुछ की नींद ज़रा देर से खुलती है, तो मिशन की शुरुआत भी ज़रा देर से होती है। समय भले ही थोड़ा आगे-पीछे हो मगर मिशन के प्रति इनका समर्पण देखते ही बनता है। कहने को ये मॉर्निंग वॉक के लिए ही निकलते हैं मगर क्या है कि हम लोग मल्टी-टास्किंग में यकीन रखते हैं। सो हमारे यहाँ लोग केवल मॉर्निंग वॉक नहीं करते, उसके साथ-साथ दूसरी गतिविधियों को भी अंजाम देते हैं। एक पंथ दो काज हो जाते हैं, कभी-कभी तो तीन या उससे ज़्यादा भी। एक होती है पुष्प प्रेमी बिरादरी। इसके सदस्य आम तौर पर धर्मप्राण जनता से आते हैं। ये कभी खाली हाथ मॉर्निंग वॉक के लिए नहीं जाते। इनके हाथ में सदा एक थैली होती है और ये रास्ते में पड़ने वाले तमाम घरों में लगे पेड़-पौधों का इंस्पेक्शन करते चलते हैं। सुंदर फूल नज़र आते ही ये उसे अपनी थैली के हवाले कर देते हैं। इन लोगों के

कौन खा जाने वाला है हिंदी को?

भाषा को लेकर उठने वाले विवाद और मचने वाली हायतौबा मुझे कभी समझ नहीं आई। यह ज़रूर समझ आया है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण और बहुभाषी देश में कोई एक “ राष्ट्रभाषा “ नहीं हो सकती। एक सवाल बरसों से सुनता आया हूँ- “ पारसी होने, कॉन्वेंट में पढ़े होने के बावजूद तु ? म्हारी हिंदी इतनी अच्छी कैसे है ” यह सवाल हमेशा दो स्तरों पर अटपटा लगता है। पहली बात तो यह कि मेरी हिंदी बिल्कुल सामान्य है। यह वैसी ही है, जैसी हिंदीभाषी राज्य के किसी भी औसत व्यक्ति की होनी चाहिए, होती है। न उससे ज़्यादा, न कम। दूसरी यह कि भाषा ज्ञान का संबंध परिवेश से है, न कि धर्म-जाति-समुदाय से। पारसी होने के नाते मेरी मातृभाषा गुजराती है मगर आजीवन हिंदी प्रदेश में रहने के चलते मेरा हिंदी में निपुण होना स्वाभाविक ही है। रही बात कॉन्वेंट की, तो स्कूल में एमपी बोर्ड का पाठ्यक्रम चलता था और अंग्रेजी माध्यम होते हुए भी शुरू से आखिर तक हिंदी अनिवार्य विषय था। सो यह भी हिंदी जानने-सीखने में बाधक नहीं था। घर में शुरू से ही अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं को आते देखा। नाना-नानी के यहाँ गुजराती अखबार और पत्र

आधी रात कमरे में झाँककर निकलती “राजधानी”

चौबीसों घंटे गुज़रती ट्रेनों के चलते भले ही घर कोयले, राख, धुएँ और धूल से भर जाता था लेकिन सारी प्रमुख ट्रेनों की समय-सारिणी हमें कंठस्थ हो गई थी। फ्रंटियर मेल, देहरादून एक्सप्रेस, डिलक्स, जनता आदि जैसे रोज़ मुलाकात करने वाले मित्र बन गए थे। हर ट्रेन की मानो अपनी अलग शख्सियत थी। आज की पीढ़ी का तो पता नहीं लेकिन मेरी पीढ़ी तक लगभग हर व्यक्ति के लिए ट्रेनों का एक खास आकर्षण हुआ करता था, जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। ट्रेन के सफर का जादू ही कुछ ऐसा था। सफर ही क्यों, इससे जुड़ी हर बात एक तिलस्म-सा गढ़ती थी। अफरा-तफरी भरे रेलवे स्टेशन, अनादि-अनंत-सी लगने वाली पटरियाँ, धुआँ उड़ाते भाप के इंजन के आपस में उलझते-से लगते चक्के, प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के आगमन की सूचना देते घंटे पर बढ़ती दिल की धड़कन...। और सफर की तो बात ही क्या ! खासकर लंबे सफर की। ऊपर वाली बर्थ पर चढ़कर या बीच वाली बर्थ को खोलकर सोना, रास्ते में हर स्टेशन पर चाय-नाश्ता बेचने उमड़ पड़ने वालों की पुकार, ऊँचे पुल पर से गुज़रने पर कँपा देने वाली ध्वनि...। चाय यूँ कभी कोई खास पसंद नहीं रही लेकिन ट्रेन के सफर के दौ

Morning rendezvous with little white stars

They invite me, they tease me. They taunt me, they plead with me. Sometimes they hide, challenging me to find them. And then there are the ethical dilemmas they put me through ! It’s that time of the year. The Chameli (Jasmine) beckons every morning. The milky white little stars dangling from their green canopy hold exclusive rights over a part of one’s morning schedule for all the months that they stay over. They arrive in mid or late August and hold court all through September and October, often staying on in November and sometimes even hanging on till well into the new year! Their arrival is preceded by keen inspections of the climber for signs of buds forming. And with the spotting of the first buds begins the wait for the first lot of flowers to blossom. The buds take their own sweet time, leaving one to speculate on which one will flower first. And amid this speculation it often so happens that one fine day the first flower appears at a spot that was nowhere on the i

जब एक ही गाना हिट भी हो और भुला भी दिया जाए

ऐसा क्यों होता है कि जब किसी गीत के दो वर्जन दो अलग-अलग गायकों ने गाए हों, तो एक वर्जन लोकप्रियता का शिखर छू लेता है जबकि दूसरा उपेक्षित रह जाता है या भुला दिया जाता है ? “ रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन… “ । फिल्म “ मंज़िल “ के गीत की यह पंक्ति पढ़कर आपके ज़ेहन में किसकी आवाज़ गूँजती है ? किशोर कुमार की ? मगर इसी गीत का एक वर्जन लता मंगेशकर की आवाज़ में भी है। आपने इसे सुना भी होगा किंतु किशोरदा वाला वर्जन ही ज़्यादा मकबूल रहा है। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। ऐसे अनेक गीत हिंदी सिने संगीत में मौजूद हैं, जिनके एक से अधिक वर्जन हैं और उनमें से कोई एक वर्जन दूसरे से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हुआ। क्या कारण है कि एक ही धुन, एक ही मुखड़े और प्राय : एक जैसे अंतरों के बावजूद एक वर्जन श्रोताओं द्वारा सर-आँखों पर बिठाया जाता है, जबकि दूसरा लोकप्रियता में पिछड़ जाता है ? वह भी तब, जब दोनों वर्जनों को समान पाये के दिग्गज कलाकारों ने आवाज़ दी हो। इसका जवाब मुश्किल है, बल्कि कह सकते हैं कि इसका कोई सीधा-सा जवाब है भी नहीं। इससे भी बढ़कर यह कि जिन गीतों के मेल-फीमेल वर्जन हैं, उनमें से

गए थे निबंध लिखने, दूध गले पड़ गया!

एक कोने में आया बाई स्टोव पर दूध गर्म कर रही थी और इधर दिमाग चकरघिन्नी हुआ जा रहा था कि दुश्मन के इस अनपेक्षित हमले से कैसे बचा जाए। दूध के साथ अपना सदा से ही बैर रहा है। सितम यह (या शायद कारण यह) कि बचपन में इसे पीना अनिवार्य था। बचपन मतलब समूचा बचपन। सोलह-सत्रह बरस की उम्र तक मुझे दैनिक आधार पर इसका सेवन कराया गया है। जिससे नफरत हो, उसके साथ इतना लंबा निभा जाना भी एक उपलब्धि ही है, जो अपन ने पाई है। कोरा गर्म दूध मेरे लिए किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। इसके स्वाद और गंध दोनों ही से वितृष्णा-सी रही है। हाँ, ठंडा फ्लेवर्ड मिल्क (जो शायद तब उपलब्ध नहीं था) मैं पी सकता हूँ। मगर शकर मिलाने के बावजूद सफेद गर्म दूध मेरे लिए अपेय ही था। तो दूध में बॉर्नविटा मिलाकर दिया जाने लगा। दिक्कत यह थी कि बॉर्नविटा का स्वाद और गंध मेरे लिए भयावहता में कोरे दूध से कहीं कम नहीं ठहरते थे। मगर उस दौर की पैरेंटिंग में ज्यादा नखरे सहने का रिवाज़ न था, सो अपन मुँह बिचकाते, बॉर्नविटा मिला दूध पीकर बड़े होने लगे। कभी-कभी दूध में कॉफी मिलाकर दी जाती, तो मानो जन्नत मिल जाती। कॉफी से बचपन में ही प्रेम हो गया था

इस रंग बदलती दुनिया में…

जब आसमान के तारे गिरगिट की तरह रंग बदलें, तो अपनी आँखों पर कितना भरोसा करें? गिरगिट रंग बदलता है, इंसान भी रंग बदलता है। रंग बदलने वाले इंसान को अक्सर गिरगिट की उपाधि से विभूषित किया जाता है। मगर अभी पिछले हफ्ते जो हुआ, वह अभूतपूर्व है। आसमां का एक तारा रंग बदल बैठा ! अमेरिकी अंतरिक्ष विज्ञानियों ने 6478 गॉल्ट नामक क्षुद्रग्रह (छोटा तारा) को अपनी आँखों के सामने रंग बदलते देखा। देखते ही देखते यह लाल से नीला हो गया। अंतरिक्ष विज्ञानियों का कहना है कि ऐसा होते हुए उन्होंने पहले कभी नहीं देखा। वैसे उन्होंने इसका संभावित कारण भी बताया है। उनका कहना है कि यह नन्हा तारा अपनी धुरी पर इतनी तेज़ी से घूम रहा है कि समय-समय पर इसकी लाल रंग की धूल उड़कर अंतरिक्ष में निकल जाती है। उस दिन मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के वैज्ञानिकों के सामने भी कुछ ऐसा ही हुआ। लाल धूल की परत उड़कर अंतरिक्ष में निकल गई और क्षुद्रग्रह की मूल नीली परत दिखाई देने लगी। तो रंग बदलने की फितरत धरती पर ही नहीं फैली, यह आसमान में भी जा पहुँची है। वैसे मंगल औऱ बृहस्पति के बीच विचरते 6478 गॉल्ट की विचित्र