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गए थे निबंध लिखने, दूध गले पड़ गया!


एक कोने में आया बाई स्टोव पर दूध गर्म कर रही थी और इधर दिमाग चकरघिन्नी हुआ जा रहा था कि दुश्मन के इस अनपेक्षित हमले से कैसे बचा जाए।

दूध के साथ अपना सदा से ही बैर रहा है। सितम यह (या शायद कारण यह) कि बचपन में इसे पीना अनिवार्य था। बचपन मतलब समूचा बचपन। सोलह-सत्रह बरस की उम्र तक मुझे दैनिक आधार पर इसका सेवन कराया गया है। जिससे नफरत हो, उसके साथ इतना लंबा निभा जाना भी एक उपलब्धि ही है, जो अपन ने पाई है। कोरा गर्म दूध मेरे लिए किसी टॉर्चर से कम नहीं रहा। इसके स्वाद और गंध दोनों ही से वितृष्णा-सी रही है। हाँ, ठंडा फ्लेवर्ड मिल्क (जो शायद तब उपलब्ध नहीं था) मैं पी सकता हूँ। मगर शकर मिलाने के बावजूद सफेद गर्म दूध मेरे लिए अपेय ही था। तो दूध में बॉर्नविटा मिलाकर दिया जाने लगा। दिक्कत यह थी कि बॉर्नविटा का स्वाद और गंध मेरे लिए भयावहता में कोरे दूध से कहीं कम नहीं ठहरते थे। मगर उस दौर की पैरेंटिंग में ज्यादा नखरे सहने का रिवाज़ न था, सो अपन मुँह बिचकाते, बॉर्नविटा मिला दूध पीकर बड़े होने लगे। कभी-कभी दूध में कॉफी मिलाकर दी जाती, तो मानो जन्नत मिल जाती। कॉफी से बचपन में ही प्रेम हो गया था (जो आज भी कायम है)। मगर बच्चों को ज़्यादा कॉफी नहीं पीनी चाहिएके सिद्धांत के तहत यह यदा-कदा ही नसीब होती थी। फिर ड्रिंकिंग चॉकलेट के रूप में ज़िंदगी को राहत मिली। इसका शुद्ध चॉकलेटी स्वाद दूध का ग़म काफी हद तक कम करने में सक्षम था। अब रोज सुबह का दूध सेशन बहुत कुछ सहनीय हो गया था।
मगर जीवन की अनिश्चितता एक बार फिर उभरकर आई। बाज़ार से कैडबरी कंपनी के उत्पाद गायब हो गए। ड्रिंकिंग चॉकलेट का साथ छूट गया। गनीमत थी कि उसी कंपनी का उत्पाद होने के कारण बॉर्नविटा भी उपलब्ध नहीं था। अब तलाश शुरू हुई नए विकल्प की। बाज़ार में उपलब्ध तमाम उत्पाद बारी-बारी से आज़माए गए। कॉम्प्लान अस्वीकार्यता में बॉर्नविटा से कुछ ही पीछे था और न्यूट्रामूल उससे कहीं आगे। (बाद में इसका विज्ञापन देखकर आश्चर्य होता था कि जुगल हंसराज जैसा प्यारा बच्चा इतनी सड़ी-सी चीज़ का विज्ञापन कैसे कर सकता है!) खैर, अंत में बात बूस्ट पर आकर रुकी। न जाने क्यों, इसका स्वाद कॉफी की याद दिलाता था और कॉफी का भाई समझकर इसे पीना संभव था। तो अब बूस्ट की नैया पर दूध की नदी पार होने लगी। फिर कैडबरी ड्रिंकिंग चॉकलेट बाज़ार में लौट आई और सुबहें एक बार फिर चॉकलेटी हो गईं।
इस बीच एक अजीब घटना घटी। मैं तब सातवीं में पढ़ता था। शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल में निबंध प्रतियोगिता आयोजित हुई। इसमें भाग लेने के लिए मेरे स्कूल की ओर से एक अन्य बालक के साथ मुझे ठेल दिया गया। चूँकि किसी अन्य स्कूल में अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करने का यह पहला (और आखिरी) मौका था, सो अपन खूब तैयारी के साथ गए और निबंध लिखकर बाहर निकले। बाहर मेज़बान स्कूल के कर्मचारियों ने यह कहकर रोक लिया कि दूध-नाश्ता करके जाना है। दूध का नाम सुनते ही अपनी सिट्टी-पिट्टी गुम! निबंध लिखने की बात हुई थी, दूध पीना तो डील में शामिल नहीं था। यह तो सरासर धोखाधड़ी हुई! अच्छे बच्चे वाले संस्कार चूँकि कुछ ज़्यादा ही कूट-कूटकर भरे थे, सो धीमी आवाज़ में बस इतना कहा कि घर से नाश्ता करके आए हैं। मगर मेज़बानों ने कह दिया कि थोड़ा तो लेना पड़ेगा। सारे निबंधकारों को एक लंबी टेबल के इर्द-गिर्द बिठा दिया गया। एक कोने में आया बाई स्टोव पर दूध गर्म कर रही थी और इधर दिमाग चकरघिन्नी हुआ जा रहा था कि दुश्मन के इस अनपेक्षित हमले से कैसे बचा जाए। जब दूध और बिस्किट परोसे जाने लगे, तो एक बच्चा बोल पड़ा,दूध नहीं, सिर्फ बिस्किट। मौका पाकर मैं भी बोल पड़ा, मैं भी, सिर्फ बिस्किट...।
क्यों, दूध पसंद नहीं है?” परोसने वाली आंटी ने उलाहना भरी मुस्कान लिए कहा। फिर बोलीं, अच्छा चलो, आधा ग्लास ही पीना। अब चारों ओर से घिर चुके सेनापति की मानिंद सिर झुकाकर हार स्वीकार कर लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। आधे के बजाए पौन ग्लास दूध सामने रखा गया। जी कड़ा कर व नाक बंद कर पहला घूँट लिया। फिर बला जल्द से जल्द टालने की नीयत से दो-तीन और घूँट इसी प्रकार जल्दी-जल्दी गटक लिए। अचानक मन में कौंधा- यह दूध है? इसमें कुछ अलग है! शकर अच्छी मात्रा में है, लेकिन वह तो घर पर भी होती है...। कौतुहलवश अगला घूँट यूँही, बगैर नाक बंद किए ले डाला। इलायची की खुश्बू पहचान में आई। तो क्या इलायची ने दूध की अप्रियता कम कर दी थी? और हाँ, पता नहीं कैसे, इस दूध में तो मलाई भी नहीं थी! पहली बार लगा कि सफेद दूध उतना भी बुरा नहीं होता...। खैर, घर पर तो फिर वही चॉकलेट चढ़ा दूध पीने का सिलसिला जारी रहा।
अब सोचूँ, तो आश्चर्य होता है कि उस निबंध प्रतियोगिता में जीते प्रथम पुरस्कार से भी अधिक यादगार वहाँ पिया वह दूध कैसे हो गया! शायद इसलिए कि वह दिखा गया कि घृणित से घृणित शत्रु भी थोड़ा रूप परिवर्तन कर मित्र न सही, एक निरापद हमराही तो बन ही सकता है...।

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