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Showing posts with the label दिल से/ From the heart

कहीं कुछ गलत तो नहीं सोच रहे आप?

आज आसपास फैली नकारात्मकता के बीच हमारा दिमाग इस कदर बुरा सोचने का आदि हो गया है कि अक्सर हम सामान्य तर्क से भी परहेज कर जाते हैं।   प्रेशर कुकर के लिए रबर गैस्केट लेने बीच शहर स्थित एक दुकान पर गया था। दुकान कुछ देर पहले ही खुली लग रही थी। कोई अन्य ग्राहक नहीं था। काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को मैंने पुराना गैस्केट दिखाते हुए कहा कि इस साइज़ वाला दे दीजिए। उसने पुराना गैस्केट हाथ में लेकर गौर से देखा और फिर दुकान में थोड़ा भीतर की ओर रखी टेबल की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा कि अभी लड़का नहीं है, आप ही वहाँ से फलां नंबर वाला गैस्केट देखकर उठा लीजिए। मुझे बड़ा अजीब लगा। बंदा खुद उठकर सामान देने के बजाए ग्राहक से कह रहा है कि वहाँ रखा है, ढूंढकर ले लो ! मन ही मन सोचा, “ आलसी कहीं का ! अभी तो दिन शुरू हुआ है, अभी से उठकर काम करना टाल रहा है। पता नहीं ऐसे लोग दुकान खोलकर बैठते ही क्यों हैं। ” आदि आदि। खैर, बहस करने में कोई तुक नज़र न आने पर मैं चुपचाप टेबल के पास गया और बताए गए नंबर वाला गैस्केट ढूंढने लगा। टेबल पर फैले सामान के बीच यह ज़रा मुश्किल था। एक-दो मिनिट बीतते-बीतते पीछे क

स्मृतियों पर सवार स्वाद

जहाँ स्वाद स्मृतियों के तार झंकृत कर जाता है , वहीं स्मृतियाँ भी कभी-कभी मुँह को स्वाद दे जाती हैं। जब भी कुछ चटपटा खाने को मन करता है , तो घर से कुछ ही दूरी पर स्थित दुकान का रुख किया जाता है और वहाँ से समोसे , कचोरी , खमण आदि लाए जाते हैं। ऐसे ही एक दिन खमण लेने गया , तो दुकानदार ने बताया कि “नॉर्मल” खमण तो खत्म हो गया , चावल वाला सफेद खमण है , वह चलेगा ? मैंने हामी भर दी। यह सफेद खमण देखा तो कई बार था मगर चखा कभी नहीं था। घर आकर जब इसका पहला निवाला मुँह में रखा , तो इसका स्वाद कुछ जाना-पहचाना-सा लगा। अगले ही पल मैं बोल पड़ा , “ अरे , इसका स्वाद तो काफी कुछ सांधरा जैसा है!” दरअसल सांधरा एक परंपरागत पारसी डिश है , जो चावल के आटे आदि में ताड़ी डालकर , उसे रात भर फर्मेंट करने के बाद भाप में पकाकर तैयार की जाती है। यूँ है तो यह एक प्रकार की मिठाई लेकिन चावल का आटा , फर्मेंटेशन और भाप में पकाने जैसी समानताओं के चलते कोई आश्चर्य नहीं कि चावल के खमण का स्वाद इससे मिलता-जुलता-सा लगता है। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैंने सांधरा जीवन में दो-एक बार ही खाया है और इसे आखिरी बार खाए कम से कम चा

अब “अंकल” और “बाबूजी” चौंकाते नहीं

सापेक्षता के सिद्धांत को एक नए कोण से समझा गई वह बाल टोली ! और मुझे एहसास हो गया कि मैं अपने “ सबसे छोटे ” वाले दर्जे को “ फॉर ग्रांटेड ” नहीं ले सकता। हौले-हौले मुझे इससे वंचित होना होगा।     दीपावली के बाद वाला दिन था। धोक पड़वा। हम लोग बुआ के यहाँ बैठे गपशप कर रहे थे। तभी पड़ोस वाले घर के बच्चों की टोली बुआ को धोक देने आ पहुँची। बुआ के बाद वे बच्चे वहाँ बैठे अन्य लोगों के भी पैर छूने लगे। मोहल्ले की ही एक अन्य आंटी, पापा, मम्मी, भैया…। तभी अचानक एक नन्ही बच्ची ने मेरे पैर छू लिए ! मैं चौंक पड़ा। उस समय मेरी उम्र 14-15 साल थी, मैं घर में सबसे छोटा था और कोई मेरे पैर छुए, यह बात ही मेरी कल्पना से परे थी। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, एक के बाद एक टोली के सारे सदस्य यंत्रवत मेरे पैर छूते हुए आगे बढ़ गए…। और मैं कहीं भीतर तक हिलकर रह गया…। “ न्यूक्लियर फैमिली ” का सबसे छोटा सदस्य होने के नाते, जबसे होश संभाला, मैंने अपने छोटेपन को स्वीकार कर लिया था। छोटा रहना ही मेरी नियति है, यह मान लिया था। अपने तमाम फायदों और नुकसानों सहित यह मुझे मंज़ूर था। मगर आज एहसास हुआ कि यह दर्जा

कहर बरपाएगा ज़ंग लगा चाँद!

क्या मान लें कि हमारा चाँद अब कबाड़ हो चला है ? क्या ज़माना आ गया है ! कलजुग… घोर कलजुग ! हमारे श्वेत-धवल चाँद को ज़ंग लग रही है ! जी हाँ, अंतरिक्ष विज्ञानियों ने बीते दिनों चाँद की सतह पर आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी पाई। आयरन ऑक्साईड यानी रस्ट… ज़ंग। तो क्या सौंदर्य के पर्याय के रूप में चाँद के दिन अब लदने को हैं ? इसके दागों को तो हमने सदियों से सहज स्वीकार कर रखा है, इन्हें चाँद के मुखड़े पर नज़र के टीके के तौर पर मान लिया है। लेकिन ज़ंग… ? नहीं नहीं, यह नहीं चलेगा। ज़रा कल्पना कीजिए, ज़ंग लगा चाँद हमारे साहित्य-कला जगत, हमारी रूमानियत की दुनिया में किस कदर कहर बरपाने वाला है। अब जब “ शाम को खिड़की से चोरी-चोरी नंगे पाँव चाँद आएगा ” तो क्या सीटी बजाने के बजाए अपने ज़ंग लगे पुर्जों की चर्र-चूँ, चर्र-चूँ सुनाएगा ? जब प्रेमी अपनी प्रेयसी की तारीफ में उसके चेहरे को “ चाँद जैसा मुखड़ा ” कहेगा, तो कहीं वह इसे उलाहने के तौर पर तो नहीं लेगी ? जब कोई “ चाँद के टुकड़े ” की बात करेगा तो क्या उससे प्रश्न किया जाएगा कि “ कौन-सा टुकड़ा भाई ? कहीं ज़ंग लगे हिस्से से तो नहीं तोड़ लाए ना ? ” चाँद प

इन्हें कहना नहीं पड़ता, 'अपना ही घर समझो'

संसार के भीतर एक अलग संसार देखना हो, तो इन गौरैयाओं को निहारें। वे पूरे अधिकार से मेरे आंगन में कब्जा जमाए रहती हैं। कभी मधुकामिनी की डाल पर चहचहाती, कभी चमेली की बेल पर फुदकती, तो कभी ज़मीन पर अपना आहार बीनती-चुगती या सकोरे पर जाकर गला तर करती। अल-सुबह से ही इनकी चीं-चीं शुरू हो जाती है। गोया संसार चलाने का सारा दारोमदार इन्हीं पर है। ज़रा चुप रहीं या थोड़ी देर तक सोई रहीं, तो ब्रह्माण्ड थम जाएगा ! एक समय था, जब अक्सर सुनने में आता था कि गौरैया लुप्तप्राय होती जा रही है लेकिन यहाँ बीते कई साल से ये आबाद हैं। नए ज़माने के घरों के हिसाब से इन्होंने खुद को ढाल लिया लगता है। इंसान से पहले भी इनका रिश्ता घरापे का था और अब भी वही बेतकल्लुफी कायम है। इन्हें कहने की ज़रूरत नहीं होती कि इसे अपना ही घर समझो, ये तो घर को अपना मानकर ही चलती हैं। दाना-पानी के लिए इन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता, सो पूरा दिन आँगन और उसके आसपास ही बीतता है। इनका बस चले, तो दरवाज़े-खिड़की खुले मिलने पर तफरीह करते-करते भीतर ही चली आएँ ! जब घोंसला बनाने के लिए कच्चा माल दरकार हो, तो ये हमारी नाक के नीचे से

Morning rendezvous with little white stars

They invite me, they tease me. They taunt me, they plead with me. Sometimes they hide, challenging me to find them. And then there are the ethical dilemmas they put me through ! It’s that time of the year. The Chameli (Jasmine) beckons every morning. The milky white little stars dangling from their green canopy hold exclusive rights over a part of one’s morning schedule for all the months that they stay over. They arrive in mid or late August and hold court all through September and October, often staying on in November and sometimes even hanging on till well into the new year! Their arrival is preceded by keen inspections of the climber for signs of buds forming. And with the spotting of the first buds begins the wait for the first lot of flowers to blossom. The buds take their own sweet time, leaving one to speculate on which one will flower first. And amid this speculation it often so happens that one fine day the first flower appears at a spot that was nowhere on the i