आज की पीढ़ी का तो पता नहीं लेकिन मेरी पीढ़ी तक लगभग हर व्यक्ति के लिए
ट्रेनों का एक खास आकर्षण हुआ करता था, जिसे शब्दों में बयान करना मुश्किल है। ट्रेन
के सफर का जादू ही कुछ ऐसा था। सफर ही क्यों, इससे जुड़ी हर बात एक तिलस्म-सा
गढ़ती थी। अफरा-तफरी भरे रेलवे स्टेशन, अनादि-अनंत-सी लगने वाली पटरियाँ, धुआँ
उड़ाते भाप के इंजन के आपस में उलझते-से लगते चक्के, प्लेटफॉर्म पर ट्रेन के आगमन की
सूचना देते घंटे पर बढ़ती दिल की धड़कन...।
और सफर की तो बात ही क्या! खासकर लंबे सफर की। ऊपर वाली बर्थ पर चढ़कर या बीच वाली बर्थ को खोलकर सोना,
रास्ते में हर स्टेशन पर चाय-नाश्ता बेचने उमड़ पड़ने वालों की पुकार, ऊँचे पुल पर
से गुज़रने पर कँपा देने वाली ध्वनि...। चाय यूँ कभी कोई खास पसंद नहीं रही लेकिन
ट्रेन के सफर के दौरान मिलने वाली चाय का हमेशा इंतज़ार रहता था। रेलवे की ट्रे-नुमा
थाली भी खूब आकर्षित करती थी, हालाँकि उसके रसास्वादन के मौके कम ही मिले क्योंकि
माता-पिता का ज़ोर इस पर रहता था कि सफर के दौरान घर से लाया भोजन ग्रहण करना ही
ठीक रहता है। ट्रेन के भीतर हों, तो सफर की मस्ती का उद्घोष करती और बाहर हों, तो
रास्ता छोड़ने की चेतावनी देती इंजन की सीटी मानो रेलवे की सर्वमान्य प्रतीक ही
थी।
पिताजी की दो बार रतलाम में हुई पोस्टिंग के दौरान एक बार कुछ महीनों के लिए
ऐन रेलवे लाइन के पास, डाट की पुल से कुछ मीटर की दूरी पर रहने का अनुभव बाकी सारे
मकानों के अनुभवों से हटकर था। चौबीसों घंटे गुज़रती ट्रेनों के चलते भले ही घर
कोयले, राख, धुएँ और धूल से भर जाता था लेकिन सारी प्रमुख ट्रेनों की समय-सारिणी
हमें कंठस्थ हो गई थी। फ्रंटियर मेल, देहरादून एक्सप्रेस, डिलक्स, जनता आदि जैसे
रोज़ मुलाकात करने वाले मित्र बन गए थे। हर ट्रेन की मानो अपनी अलग शख्सियत थी।
फ्रंटियर मेल के लाल डिब्बों पर चढ़ी पीली पट्टी और उसमें लगे दो-तीन एसी कोच उस
ट्रेन के “इलीट” दर्जे का ऐलान करते थे। वहीं डिलक्स एक्सप्रेस में बड़े-बड़े काँच वाले एसी कोच यकीन दिलाते थे कि
यह वाकई “डिलक्स” है। जम्मू तवी एक्सप्रेस के नीले
डिब्बे देखकर लगता था, मानो जम्मू की सर्दी से ये नीले पड़ गए हों! देहरादून एक्सप्रेस के डिब्बे पूरे लाल हुआ करते थे और जनता के भी, मगर इसके
बावजूद दोनों एक-दूसरे से अलग जान पड़ती थीं।
इन सब ट्रेनों से अलग रौब और रुतबा था राजधानी एक्सप्रेस का। इसे तब देश की
सबसे तेज़ ट्रेन का खिताब मिला हुआ था, सो अपने आप ही इसका दर्ज़ा बाकी ट्रेनों से
ऊपर था। तिस पर, अप और डाउन दोनों ही दिशाओं में यह देर रात को गुज़रती थी। यदि
मैं गलत नहीं हूँ, तो एक दिशा में साढ़े बारह बजे और दूसरी दिशा में तीन-साढ़े तीन
बजे। नतीजा यह कि इस ट्रेन को कभी देखने का सौभाग्य नहीं मिला, इसे सिर्फ सुना
गया। अंधेरी रात के सन्नाटे को जब यह चूर-चूर करती निकलती, मजाल थी कि नींद न खुल
जाती! अपनी ट्रेडमार्क द्रुत
गति की धड़धड़ाहट के साथ निकलते हुए यह हर रात एक रोमांच का पुनर्लेखन कर जाती।
कभी जब खिड़की का पर्दा खुला रह जाता, तो बंबई की दिशा से आ रही राजधानी के इंजन
की हेडलाइट की रोशनी एकाध सेकंड के लिए सीधे बेडरूम में पड़ती और ऐसा जान पड़ता,
मानो कोई रहस्यमयी निशाचर कमरे में झाँककर निकल गया हो।
यात्री गाड़ियों के विपरीत, मालगाड़ियाँ बड़ी सुस्त रफ्तार से गुज़रती थीं।
कुछ तो इतनी लंबी होतीं कि उनके डिब्बों की संख्या गिनने में मज़ा आ जाता। कभी-कभी
कोई एंजिन अकेला ही शंटिंग वगैरह के लिए पुल पर से गुज़रता, तो बड़ा अटपटा लगता। मन
में विचार आता कि कहीं ड्राइवर साहब डिब्बों को पीछे भूल तो नहीं आए!
एक परिचित अंकल
रेलवे में गार्ड थे और इसी रूट पर उनका ड्यूटी लगती थी। उन्हें पता था कि हम बच्चे
घर के बाहर खड़े हो ट्रेनों को निहारते रहते थे, सो जब वे अपने केबिन के दरवाज़े
पर से हमें देखते, कभी सीटी बजाकर, तो कभी झंडे थामे हाथ हिलाकर हमारा अभिवादन
करते। … और हम खुशी से बावले होकर यही मान लेते कि अंकल नहीं, बल्कि पूरी ट्रेन या
कहें कि पूरी भारतीय रेलवे हमारा अभिवादन करती गुज़री है…!
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