भाषा को लेकर
उठने वाले विवाद और मचने वाली हायतौबा मुझे कभी समझ नहीं आई। यह ज़रूर समझ आया है कि
भारत जैसे विविधतापूर्ण और बहुभाषी देश में कोई एक “राष्ट्रभाषा“ नहीं हो सकती।
एक सवाल बरसों
से सुनता आया हूँ- “पारसी होने, कॉन्वेंट में पढ़े होने के बावजूद तु?म्हारी हिंदी इतनी अच्छी कैसे है” यह सवाल हमेशा दो स्तरों पर
अटपटा लगता है। पहली बात तो यह कि मेरी हिंदी बिल्कुल सामान्य है। यह वैसी ही है,
जैसी हिंदीभाषी राज्य के किसी भी औसत व्यक्ति की होनी चाहिए, होती है। न उससे
ज़्यादा, न कम। दूसरी यह कि भाषा ज्ञान का संबंध परिवेश से है, न कि
धर्म-जाति-समुदाय से। पारसी होने के नाते मेरी मातृभाषा गुजराती है मगर आजीवन
हिंदी प्रदेश में रहने के चलते मेरा हिंदी में निपुण होना स्वाभाविक ही है। रही
बात कॉन्वेंट की, तो स्कूल में एमपी बोर्ड का पाठ्यक्रम चलता था और अंग्रेजी
माध्यम होते हुए भी शुरू से आखिर तक हिंदी अनिवार्य विषय था। सो यह भी हिंदी
जानने-सीखने में बाधक नहीं था।
घर में शुरू से
ही अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं के पत्र-पत्रिकाओं को आते देखा। नाना-नानी के
यहाँ गुजराती अखबार और पत्रिका भी। बचपन में अमर चित्र कथा, इंद्रजाल कॉमिक्स,
चंपक, चंदामामा आदि खूब पढ़ीं। इसमें भाषा का कोई विशेष आग्रह नहीं था। हिंदी में
मिल गई तो उसे ले आए और अंग्रेजी में मिल गई तो उसे। इस प्रकार बचपन से ही दोनों
भाषाओं पर समान पकड़ बनती चली गई। यह भी हुआ कि अंग्रेजी में कुछ पढ़ता तो कल्पना
करता कि इसे हिंदी में कैसे लिखा होगा और हिंदी में पढ़ता तो सोचने लगता कि
अंग्रेजी में इसे यूँ लिखा होगा। इस प्रकार अवचेतन में अनुवाद चलता रहता। शायद यही
कारण रहा कि जब पत्रकारिता में आया, तो अनुवाद का काम हमेशा बिल्कुल सहज-सामान्य
लगा।
कुल मिलाकर यह
कि जिन तीन भाषाओं का ज्ञान हासिल किया, वे सभी हमेशा अपनी लगीं। न कोई श्रेष्ठ, न
कोई कमतर। इसलिए भाषा को लेकर उठने वाले विवाद और मचने वाली हायतौबा कभी समझ नहीं
आई। यह ज़रूर समझ आया है कि भारत जैसे विविधतापूर्ण और बहुभाषी देश में कोई एक “राष्ट्रभाषा“ नहीं हो सकती।
इसका आग्रह करना फिज़ूल है। हिंदी किसी अन्य भारतीय भाषा से कहीं अधिक लोगों
द्वारा बोली जाने वाली और सबसे ज़्यादा समझी जाने वाली भाषा है, यह प्रतिष्ठा राष्ट्रभाषा
के किसी औपचारिक तमगे से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। हर साल चौदह सितंबर के आसपास
हिंदी की “दशा और दिशा“ को लेकर खूब रुदन सुनने में आता है। इसे पीड़ित-प्रताड़ित और किसी बड़े अंतर्राष्ट्रीय
षड़यंत्र के शिकार के रूप में पेश किया जाता है। इस हीनता ग्रंथि और भयोत्पादक
प्रवृत्ति से मुक्ति पाना ज़रूरी है। अंग्रेजी के नाम पर छाती पीटने का भी कोई
औचित्य नहीं। वह अपनी जगह रहेगी, हिंदी अपनी जगह। कोई दूसरी भाषा हिंदी को “खा“ नहीं जाने
वाली। बाज़ारवाद के इस युग में तो बाज़ार भी हिंदी को सलाम कर रहा है। आप पूरे
आत्मविश्वास के साथ हिंदी का उपयोग कीजिए। न इसे किसी दूसरी भाषा से हीन समझिए, न श्रेष्ठ।
तमाम उत्तरजीवी भाषाओं की तरह इसे लचीला बनाए रखिए। इसका भविष्य उज्जवल रहेगा।
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