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जब एक ही गाना हिट भी हो और भुला भी दिया जाए



ऐसा क्यों होता है कि जब किसी गीत के दो वर्जन दो अलग-अलग गायकों ने गाए हों, तो एक वर्जन लोकप्रियता का शिखर छू लेता है जबकि दूसरा उपेक्षित रह जाता है या भुला दिया जाता है?

रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन…। फिल्म मंज़िल के गीत की यह पंक्ति पढ़कर आपके ज़ेहन में किसकी आवाज़ गूँजती है? किशोर कुमार की? मगर इसी गीत का एक वर्जन लता मंगेशकर की आवाज़ में भी है। आपने इसे सुना भी होगा किंतु किशोरदा वाला वर्जन ही ज़्यादा मकबूल रहा है। यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। ऐसे अनेक गीत हिंदी सिने संगीत में मौजूद हैं, जिनके एक से अधिक वर्जन हैं और उनमें से कोई एक वर्जन दूसरे से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय हुआ। क्या कारण है कि एक ही धुन, एक ही मुखड़े और प्राय: एक जैसे अंतरों के बावजूद एक वर्जन श्रोताओं द्वारा सर-आँखों पर बिठाया जाता है, जबकि दूसरा लोकप्रियता में पिछड़ जाता है? वह भी तब, जब दोनों वर्जनों को समान पाये के दिग्गज कलाकारों ने आवाज़ दी हो। इसका जवाब मुश्किल है, बल्कि कह सकते हैं कि इसका कोई सीधा-सा जवाब है भी नहीं। इससे भी बढ़कर यह कि जिन गीतों के मेल-फीमेल वर्जन हैं, उनमें से ज़्यादातर गीत पुरुष स्वर में अधिक लोकप्रिय हुए हैं। यदि यह महज़ इत्तेफाक नहीं है, तो इसका कारण भी किसी रहस्य से कम नहीं है।
मेरे मेहबूब का शीर्षक गीत मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम मोहम्मद रफी के सर्वकालिक महान गीतों में शुमार होता है और किंवदंति बन चुका है। इसकी कालजयी लोकप्रियता के पीछे इसी गीत का लता मंगेशकर वाला वर्जन कहीं खो गया है। इसी प्रकार बरसात की रात का शीर्षक गीत ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात भी रफी की ही आवाज़ में बुलंद हुआ, हालाँकि इसका भी एक वर्जन लताजी की आवाज़ में (अंतिम अंतरे में रफी की आवाज़ सहित) है। एहसान तेरा होगा मुझ पर (जंगली), ऐ मेरे शाह-ए-खुबां (लव इन टोक्यो), जिया हो, जिया हो जिया कुछ बोल दो (जब प्यार किसी से होता है), परदेसियों से न अखियाँ मिलाना (जब-जब फूल खिले), तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे (पगला कहीं का) आदि ऐसे और भी उदाहरण मिल जाएँगे। ध्यान रहे, यहाँ कलाकारों की गायकी या व्यक्तिगत लोकप्रियता पर टिप्पणी नहीं की जा रही, बल्कि इन गीतों की लोकप्रियता की बात हो रही है।
आशा (1957) के गीत ईना मीना डीका की पहचान सीधे-सीधे किशोर कुमार से जुड़ी ही नहीं है, बल्कि यह गीत एक तरह से किशोरदा की पूरी शख्सियत को प्रतिबिंबित करता है। इसके एक वर्जन को आशा भोंसले ने भी आवाज़ दी है लेकिन ईना मीना डीका पर किशोर कुमार का गीत होने का ही ठप्पा लगा है। जीवन के सफर में राही (मुनीमजी, दूसरा वर्जन लता), मेरे नैना सावन भादो (मेहबूबा, दूसरा वर्जन लता), ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना (मुकद्दर का सिकंदर, दूसरा वर्जन आशा), अजनबी, तुम जाने-पहचाने से लगते हो (हम सब उस्ताद हैं, दूसरा वर्जन लता) का भी यही हाल है। कुदरत के किशोर गीत हमें तुमसे प्यार कितना का एक अलहदा रूप परवीन सुल्ताना की आवाज़ में है, जिसके लिए मान सकते हैं कि शास्त्रीय पुट होने के कारण यह लोकप्रियता में पिछड़ गया लेकिन उपरोक्त अन्य गीतों के लिए आप क्या कहेंगे? चलिए, इससे भी बढ़कर बात करते हैं अंदाज़ (1971) के गीत ज़िंदगी इक सफर है सुहाना की। यह भी किशोर कुमार के सदाबहार गीतों में शामिल है। इसका एक वर्जन आशा भोंसले ने भी किशोर छाप यूडलिंग सहित गाया है मगर यह किशोर कुमार के गीत के रूप में ही अमर हुआ। आशाजी वाला वर्जन तो आपने फिर भी सुना है मगर क्या रफी वाला वर्जन सुना है? जी हाँ, बहुत कम लोगों को यह पता भी होगा कि इस आइकॉनिक गीत का एक संस्करण मोहम्मद रफी की आवाज़ में भी है। फिल्म में यह मुख्य नायक शम्मी कपूर पर फिल्माया गया है मगर कुल मिलाकर यह वर्जन गुमनामी में ही खो गया।
कुछ और उदाहरण देखिए। दाग (1952) के गीत ऐ मेरे दिल कहीं और चल के दो वर्जन तलत महमूद की आवाज़ में और एक लता मंगेशकर की आवाज़ में है लेकिन लोकप्रियता में लता वाला वर्जन तलत के दोनों वर्जनों से पीछे रह गया। कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है (कभी कभी) का मुकेश वर्जन लोकप्रियता में लता वर्जन से आगे रहा। चंदन सा बदन, चंचल चितवन (सरस्वतीचंद्र) के साथ भी यही हुआ। लावारिस में अमिताभ बच्चन के गाए मेरे अंगने में के आगे अलका याग्निक का वर्जन लोकप्रियता में फीका पड़ गया। यहाँ तक कि 1942: ए लव स्टोरी में कुमार शानू का कुछ ना कहो, कुछ भी ना कहो लोकप्रियता में लता वाले वर्जन से मीलों आगे निकल गया!
हाँ, पुरुष गायक के गाए गीत के अधिक लोकप्रिय होने के इस ट्रैंड के अपवाद भी हैं। कई मामलों में महिला वर्जन ज़्यादा लोकप्रिय हुआ है या फिर दोनों ही वर्जन करीब-करीब समान कामयाबी को प्राप्त हुए हैं। रात और दिन का शीर्षक गीत रात और दिन दीया जले मुकेश के बजाय लता मंगेशकर की आवाज़ में ज़्यादा मकबूल हुआ। तुझसे नाराज़ नहीं ज़िंदगी (मासूम, दूसरा वर्जन अनूप घोषाल), नीला आसमाँ सो गया (सिलसिला, दूसरा वर्जन अमिताभ), तेरे मेरे बीच में कैसा है ये बंधन अनजाना (एक-दूजे के लिए, दूसरा वर्जन एस पी बालसुब्रमण्यम), दिल दीवाना, बिन सजना के माने ना (मैंने प्यार किया, दूसरा वर्जन एस पी  बालसुब्रमण्यम) इसके उदाहरण हैं। एक दो तीन (तेज़ाब) का अलका याग्निक वाला वर्जन अमित कुमार वाले वर्जन को मात दे गया।
कई गीतों के दोनों वर्जन करीब-करीब समान रूप से लोकप्रिय हुए। मसलन, तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है (चिराग- रफी/ लता), फूलों का, तारों का सबका कहना है (हरे राम, हरे कृष्ण- लता/ किशोर), सब कुछ लुटाके होश में आए तो क्या किया (एक साल- तलत/ लता), न तुम हमें जानो, न हम तुम्हें जानें (बात एक रात की- हेमंत कुमार/ सुमन कल्याणपुर), ज़िंदगी प्यार का गीत है (सौतन- लता/ किशोर), कितने भी तू कर ले सितम (सनम तेरी कसम- किशोर/ आशा) आदि। प्यार का मौसम के गीत तुम बिन जाऊँ कहाँ के दो मेल वर्जन थे और रफी व किशोर दोनों ही के वर्जन लगभग समान रूप से पसंद किए गए। आप तो ऐसे न थे के गीत तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है के तीन वर्जन थे (रफी, मनहर और हेमलता की आवाज़ में) और तीनों ही खूब सुने गए।
तो बात फिर वहीं आकर ठहरती है कि क्यों अक्सर गीत का कोई एक वर्जन दूसरे से अधिक लोकप्रिय हो जाता है। कुछ मामलों में कोई तर्क ढूँढा जा सकता है। मसलन यह कि फिल्म के कथानक में गीत का एक वर्जन मूल होता है, जो पहले आता है और दूसरा वर्जन, जो अमूमन बाद में आता है, वह उसी के संदर्भ में कहानी में अपना स्थान रखता है। जैसे एक पात्र के गाए गीत को दूसरा पात्र किसी अन्य परिस्थिति में दोहराए। ऐसे में अक्सर पहला, या कथानक के हिसाब से मूल गीत ही अधिक लोकप्रिय होता है। मेरे मेहबूब तुझे मेरी मोहब्बत की कसम, ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, जीवन के सफर में राही, एहसान तेरा होगा मुझ पर जैसे गीतों के लिए यह तर्क दिया जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि यदि गीत का एक वर्जन खुशनुमा और दूसरा उदास है, तो आम तौर पर खुशनुमा वर्जन ज़्यादा चलता है। जीवन के सफर में राही के लिए एक तर्क यह भी गढ़ा जा सकता है। दिल ढूँढता है फिर वही (मौसम) के युगल संस्करण (लता- भूपेंद्र) के भूपेंद्र के एकल संस्करण से अधिक लोकप्रिय होने की भी वजह यह हो सकती है। झिलमिल सितारों का आँगन होगा (जीवन मृत्यु) का लता-किशोर वाला वर्जन भी शायद इसी वजह से लता के सोलो वर्जन से ज़्यादा लोकप्रिय हुआ। गायक न होते हुए भी यदि अमिताभ अपने गाए मेरे अंगने में को अलका याग्निक के वर्जन से ज़्यादा लोकप्रियता दिला पाए, तो इसका कारण यह बताया जा सकता है कि उस समय वे अपने सुपरस्टारडम के शिखर पर थे। मगर उसी साल उनका गाया नीला आसमाँ लता वाले वर्जन के आगे ठहर नहीं पाया था!
खैर, हर बार कोई संतोषजनक तर्क नहीं मिल पाता। आप कह सकते हैं कि यह महज़ इत्तेफाक या फिर किस्मत की बात है मगर क्या यह जवाब वाकई आपको संतुष्ट कर सकता है…? ज़रा सोचिएगा।

Comments

  1. "हमें तुमसे प्यार कितना ये हम नहीं जानते" इस गाने में भी ऐसी ही हकीकत है !

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