क्या मान लें कि हमारा चाँद अब कबाड़ हो चला है?
क्या ज़माना आ गया है! कलजुग… घोर कलजुग! हमारे श्वेत-धवल चाँद को ज़ंग लग रही है! जी हाँ, अंतरिक्ष विज्ञानियों ने बीते दिनों चाँद की सतह पर आयरन ऑक्साइड की मौजूदगी पाई। आयरन ऑक्साईड यानी रस्ट… ज़ंग। तो क्या सौंदर्य के पर्याय के रूप में चाँद के दिन अब लदने को हैं? इसके दागों को तो हमने सदियों से सहज स्वीकार कर रखा है, इन्हें चाँद के मुखड़े पर नज़र के टीके के तौर पर मान लिया है। लेकिन ज़ंग…?
नहीं नहीं, यह नहीं चलेगा। ज़रा कल्पना कीजिए, ज़ंग लगा चाँद हमारे साहित्य-कला जगत, हमारी रूमानियत की
दुनिया में किस कदर कहर बरपाने वाला है। अब जब “शाम
को खिड़की से चोरी-चोरी नंगे पाँव चाँद आएगा” तो क्या सीटी बजाने के
बजाए अपने ज़ंग लगे पुर्जों की चर्र-चूँ, चर्र-चूँ सुनाएगा? जब
प्रेमी अपनी प्रेयसी की तारीफ में उसके चेहरे को “चाँद
जैसा मुखड़ा” कहेगा, तो कहीं वह इसे उलाहने के तौर पर तो नहीं लेगी? जब कोई “चाँद के टुकड़े” की बात करेगा तो क्या उससे प्रश्न किया जाएगा कि “कौन-सा टुकड़ा भाई? कहीं ज़ंग लगे हिस्से से तो नहीं तोड़ लाए ना?”
चाँद पर अगर ज़ंग फैलती गई, तो क्या
इसकी रोशनी भी रंग बदल लेगी? चांदनी रातें यदि रक्तिम प्रकाश से
नहाई हुई होंगी, तो पहले जैसी शीतलता दे पाएंगी? क्या
शरद पूर्णिमा की रात लाल चंद्रमा अमृत बरसा पाएगा? घुप्प
काले आसमान पर टंगे लाल चाँद को देखकर क्या कोई बाल गोपाल चंद्र खिलौना पाने को
मचलेगा?
देखा जाए, तो यह सब तो शायद होना
ही था। झटपट प्यार के इंस्टेंट दौर में भला कितने प्रेमी चाँद को निहारने बैठते
हैं? … उसे अपने प्रेम का साक्षी बनाते हैं? … उसके माध्यम से अपने प्रिय को संदेसा पहुँचाते हैं? चाँद अब उनके काम का नहीं रहा, ऐसे में उसे ज़ंग तो
लगनी ही थी।
किसी वस्तु को ज़ंग लगना उसके कबाड़
बनने की शुरुआत मानी जाती है। तो क्या मान लें कि हमारा चाँद भी अब कबाड़ हो चला
है?
कहा ना, कलजुग आ गया है… घोर कलजुग!
(चित्र इंटरनेट से)
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