सापेक्षता के सिद्धांत को एक नए कोण से समझा गई वह बाल टोली! और मुझे एहसास हो गया कि मैं अपने “सबसे छोटे” वाले दर्जे को “फॉर ग्रांटेड” नहीं ले सकता। हौले-हौले मुझे इससे वंचित होना होगा।
दीपावली के बाद वाला दिन था। धोक पड़वा। हम लोग बुआ के यहाँ बैठे गपशप कर रहे
थे। तभी पड़ोस वाले घर के बच्चों की टोली बुआ को धोक देने आ पहुँची। बुआ के बाद वे
बच्चे वहाँ बैठे अन्य लोगों के भी पैर छूने लगे। मोहल्ले की ही एक अन्य आंटी,
पापा, मम्मी, भैया…। तभी अचानक एक नन्ही बच्ची ने मेरे पैर छू लिए! मैं चौंक पड़ा। उस समय मेरी उम्र 14-15 साल थी, मैं घर में सबसे छोटा था और
कोई मेरे पैर छुए, यह बात ही मेरी कल्पना से परे थी। इससे पहले कि मैं कुछ समझ
पाता, एक के बाद एक टोली के सारे सदस्य यंत्रवत मेरे पैर छूते हुए आगे बढ़ गए…। और
मैं कहीं भीतर तक हिलकर रह गया…।
“न्यूक्लियर फैमिली” का सबसे छोटा सदस्य होने के नाते,
जबसे होश संभाला, मैंने अपने छोटेपन को स्वीकार कर लिया था। छोटा रहना ही मेरी
नियति है, यह मान लिया था। अपने तमाम फायदों और नुकसानों सहित यह मुझे मंज़ूर था। मगर
आज एहसास हुआ कि यह दर्जा स्थायी नहीं है। कोई हमेशा छोटा नहीं रह सकता। समय का प्रवाह ऐसा होने नहीं देता। आपका छोटा या बड़ा
होना इस पर निर्भर करता है कि आपके आसपास कौन है। सापेक्षता के सिद्धांत को एक नए
कोण से समझा गई वह बाल टोली! और मुझे एहसास हो गया कि मैं अपने “सबसे छोटे” वाले दर्जे को “फॉर ग्रांटेड” नहीं ले सकता। हौले-हौले मुझे इससे वंचित होना
होगा।
कोई 35-36 की
उम्र में मुझे इस बात का आभास होने लगा कि दफ्तर, बाज़ार या फिर राह चलते मेरे
आसपास मौजूद लोगों में मुझसे उम्र में बड़े लोगों के मुकाबले उम्र में मुझसे छोटे
लोगों का अनुपात अधिक था। जब देश का बहुमत युवा होने की चर्चा चल पड़ी थी, उसी
वक्त मैं इस बहुमत से बाहर हो रहा था। समय का प्रवाह जारी था।
यह प्रवाह पूरी
खामोशी के साथ आगे बढ़ रहा हो, ऐसा भी नहीं। कानों में पड़ने वाले, आपके लिए
प्रयुक्त बदलते संबोधन इस
प्रवाह की आवाज़ आप तक पहुँचा देते हैं। “बेटा” की जगह “भैया” और फिर “भैया” की जगह “अंकल” लेने लगता है।
शुरू में जो कानों को अटपटा लगता है, जल्दी नहीं तो धीरे-धीरे ही सही, उसकी आदत
पड़ जाती है। सो मुझे भी “भैया” कम और “अंकल” अधिक सुनने की आदत पड़ती गई। शुरू-शुरू में ज़रूर मैं इस बात का आकलन करने की
कोशिश करता कि क्या बोलने वाला/ वाली उम्र में मुझसे इतना छोटा/ छोटी है कि
उसे मुझे “अंकल” संबोधित करने का अधिकार दिया जाए। बाद में
परवाह करना छोड़ दिया। हाँ, अपने लिए यदा-कदा प्रयुक्त “बाबूजी” संबोधन ज़रूर अजीब लगता। कभी पेट्रोल पंप पर, कभी दीपावली पर लगे पटाखा
बाज़ार में मैं इस संबोधन से दो-चार हुआ हूँ। वह भी तब, जबकि संबोधित करने वाले
उम्र में मुझसे ज़्यादा छोटे नहीं थे!
कोई दो-एक साल
पहले मैं ट्रैफिक सिग्नल पर रुका था। तभी पास आकर खड़े रिक्शा से आवाज़ आई, “बाबूजी, बाइक थोड़ी पीछे कर लो तो मैं अपनी गाड़ी उस तरफ निकाल लूँ।” मैंने मुड़कर
देखा, तो रिक्शा ड्राइवर की सीट पर झुकी पीठ और सफेद दाढ़ी वाले महाशय दिखे,
जिन्हें मैं बुज़ुर्ग ही कहूँगा। मन किया कि बोल पड़ूँ, “बाबूजी किसको कह रहे हो, चचा?” पर फिर सोचा, रहने दो… जाकी रही
भावना जैसी…।
सच पूछिए तो अब इस तरह के संबोधन रास आने लगे हैं। पके बालों की प्रतिक्रिया
स्वरूप सामने वाले के व्यवहार में प्रकट होता अदब अच्छा लगता है। समय का प्रवाह
जारी है। इसे रोकने या पलटने की कोशिश करना व्यर्थ है। इस प्रवाह का आनंद लेते
रहने में ही समझदारी भी है, सुकून भी।
(चित्र इंटरनेट से)
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