Skip to main content

इन्हें कहना नहीं पड़ता, 'अपना ही घर समझो'


संसार के भीतर एक अलग संसार देखना हो, तो इन गौरैयाओं को निहारें।

वे पूरे अधिकार से मेरे आंगन में कब्जा जमाए रहती हैं। कभी मधुकामिनी की डाल पर चहचहाती, कभी चमेली की बेल पर फुदकती, तो कभी ज़मीन पर अपना आहार बीनती-चुगती या सकोरे पर जाकर गला तर करती। अल-सुबह से ही इनकी चीं-चीं शुरू हो जाती है। गोया संसार चलाने का सारा दारोमदार इन्हीं पर है। ज़रा चुप रहीं या थोड़ी देर तक सोई रहीं, तो ब्रह्माण्ड थम जाएगा!
एक समय था, जब अक्सर सुनने में आता था कि गौरैया लुप्तप्राय होती जा रही है लेकिन यहाँ बीते कई साल से ये आबाद हैं। नए ज़माने के घरों के हिसाब से इन्होंने खुद को ढाल लिया लगता है। इंसान से पहले भी इनका रिश्ता घरापे का था और अब भी वही बेतकल्लुफी कायम है। इन्हें कहने की ज़रूरत नहीं होती कि इसे अपना ही घर समझो, ये तो घर को अपना मानकर ही चलती हैं। दाना-पानी के लिए इन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता, सो पूरा दिन आँगन और उसके आसपास ही बीतता है। इनका बस चले, तो दरवाज़े-खिड़की खुले मिलने पर तफरीह करते-करते भीतर ही चली आएँ! जब घोंसला बनाने के लिए कच्चा माल दरकार हो, तो ये हमारी नाक के नीचे से ही, झाड़ू में से तिनके उखाड़ लेने में ज़रा भी नहीं हिचकतीं। और तो और, वर्चस्व की लड़ाई में यदि दो चिड़ों की आपस में ठन जाए, तो एक-दूसरे का पीछा करते ये राह में खड़े हम इंसानों की कतई परवाह नहीं करते। यहाँ तक कि टल्लामारते हुए निकलते हैं कि चल हट परे, क्या बीच रास्ते खड़ा है! यकीन कीजिए, मेरे साथ ऐसा हो चुका है!
संसार के भीतर एक अलग संसार देखना हो, तो इन गौरैयाओं को निहारें। हमारे सुख-दुख, चिंताओं-व्यग्रताओं से पूरी तरह अछूती, ये अपनी सीधी-सरल दुनियादारी में रमी रहती हैं। कुछ न कहकर भी ये जता देती हैं कि तुम इंसानों ने अपनी दुनिया कितनी जटिल और बोझिल बना दी है…!

Comments

Popular posts from this blog

टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।   चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है। इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता थ...

आओ, दीवारों का उत्सव करें

आओ, दीवारों का उत्सव करें  विद्वेष के विषकण से सींचकर धरती पर  दीवारों की फसल लहलहा दें तुम अपनी पहचान का परचम उठाओ, हम अपनी पहचान का तमगा धारें  थामकर अपनी संकुचित पहचानों को, संकीर्णताओं में ही आओ, सुख तलाशें  एका हमें दूषित करता है, चलो आपस में बंट जाएं, छंट जाएं अपनों - परायों के भेद को लेकर  न रहे कोई शक - शुबहा, कोई भ्रम - विभ्रम न छूने पाए हमारी छाया तुम्हें  न स्पर्श हो तुम्हारे वजूद का हमें न तुम्हारे सुख - दुख के छींटे पड़ें हम पर  न हमारी पीड़ा - आनंद का वास्ता हो तुमसे भूल से भी न बन बैठे कोई रिश्ता तुममें, हममें  महफूज़ रहें हम दीवारों के इस ओर, उस ओर तुम अपने खांचों में खुश रहो, हम अपने दड़बों में रहें प्रसन्न इस साझी धरती की छाती पर चलो, दीवारों की लकीरें खींच दें इंसानियत के असहनीय बोझ को भी इन्हीं दीवारों में कहीं चुनवा दें। आओ, दीवारों का उत्सव करें…। (प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

एक रुपए में अपन भी बन गए थे “सदस्य”

उसने पास आकर पूछा, “क्या तुम मेंबर बनना चाहोगे? बस एक रुपया देना होगा।” इन दिनों एक सदस्यता अभियान की चर्चा है, तो अपने को भी बरसों पुराना एक सदस्यता अभियान याद हो आया। बात तब की है जब अपन नए-नए कॉलेज जाने लगे थे। बिल्कुल कोरे-कच्चे, किताबों और कल्पनाओं की दुनिया से बाहर की “असली” दुनिया से लगभग बेखबर। एक दिन अपनी ही क्लास का, छोटा-सा चश्मा लगाने वाला, छोटे-से कद का लड़का एक-एक सहपाठी के पास जाकर कोई टास्क आगे बढ़ाता-सा दिखाई दिया। पता चला कि वह छात्र संगठन के लिए सदस्य बना रहा है। अपनी भी बारी आई। उसने पास आकर पूछा, “क्या तुम मेंबर बनना चाहोगे? बस एक रुपया देना होगा।” संगठन का नाम भी बताया मगर क्या है कि अपने को दूर-दूर तक छात्र संगठनों के नाम से मतलब नहीं था, सो उसने जो नाम बताया, वह भेजे में दर्ज होने से पहले ही फिसलकर बाहर हो गया। अपन ने तो बस इतना पूछा कि इससे क्या होगा…। इस पर उसने बचकाना-सा, रटा-रटाया जवाब दिया कि इससे ये होगा कि तुम्हारा कोई काम हो तो आसानी से हो जाएगा। तब  “ना”  कहना अपने को आता नहीं था। टालना या बहाने बनाना तो बिल्कुल भी नहीं। सो, चुपचाप जेब से एक रु...