Skip to main content

स्मृतियों पर सवार स्वाद



जहाँ स्वाद स्मृतियों के तार झंकृत कर जाता है, वहीं स्मृतियाँ भी कभी-कभी मुँह को स्वाद दे जाती हैं।


जब भी कुछ चटपटा खाने को मन करता है, तो घर से कुछ ही दूरी पर स्थित दुकान का रुख किया जाता है और वहाँ से समोसे, कचोरी, खमण आदि लाए जाते हैं। ऐसे ही एक दिन खमण लेने गया, तो दुकानदार ने बताया कि “नॉर्मल” खमण तो खत्म हो गया, चावल वाला सफेद खमण है, वह चलेगा? मैंने हामी भर दी। यह सफेद खमण देखा तो कई बार था मगर चखा कभी नहीं था। घर आकर जब इसका पहला निवाला मुँह में रखा, तो इसका स्वाद कुछ जाना-पहचाना-सा लगा। अगले ही पल मैं बोल पड़ा, “अरे, इसका स्वाद तो काफी कुछ सांधरा जैसा है!”

दरअसल सांधरा एक परंपरागत पारसी डिश है, जो चावल के आटे आदि में ताड़ी डालकर, उसे रात भर फर्मेंट करने के बाद भाप में पकाकर तैयार की जाती है। यूँ है तो यह एक प्रकार की मिठाई लेकिन चावल का आटा, फर्मेंटेशन और भाप में पकाने जैसी समानताओं के चलते कोई आश्चर्य नहीं कि चावल के खमण का स्वाद इससे मिलता-जुलता-सा लगता है। आश्चर्य की बात तो यह थी कि मैंने सांधरा जीवन में दो-एक बार ही खाया है और इसे आखिरी बार खाए कम से कम चालीस साल तो बीत ही चुके होंगे। काफी छोटा था, तब नानी ने एक-दो बार यह बनाकर खिलाया था। शायद घर में किसी को भी यह खास पसंद नहीं था, सो बाद के बरसों में यह कभी नहीं बना। इसलिए इस खमण की तुलना सांधरा से करने के अगले ही पल मैं खुद चौंका कि मुझे सांधरा का स्वाद कैसे याद है! मम्मी ने भी अचरज से पूछा, “तूने कब सांधरा खाया? यह तो बहुत पहले मम्मा बनाती थीं।” यानी उन्हें तो याद ही नहीं था कि मेरे जन्म के बाद कभी घर में सांधरा बना भी था।

ज़ाहिर है, मेरी स्मृतियों के किसी कोने में यह स्वाद दुबककर बैठा रह गया था और आज चावल का खमण खाने पर उठ खड़ा हुआ था अपनी उपस्थिति का एहसास कराने। कह सकते हैं कि स्वाद में ताकत (या कहें नज़ाकत) है स्मृतियों के तार झंकृत करने की।

मगर जहाँ स्वाद स्मृतियों के तार झंकृत कर जाता है, वहीं स्मृतियाँ भी कभी-कभी मुँह को स्वाद दे जाती हैं। जब मैं दसवीं में पढ़ता था, तो एक साथ टाइफॉइड और वायरल फीवर का शिकार हुआ। सवा महीने स्कूल से छुट्टी कर घर पर पड़ा रहा। बाकी दवाइयों के अलावा पीले रंग की एक टैबलेट रोज़ रात को दूध के साथ लेनी होती थी। एक तो दूध से मेरा पुराना बैर, ऊपर से टैबलेट का भयानक कड़वा स्वाद!

उन दिनों दूरदर्शन पर बुधवार और शुक्रवार रात आठ बजे चित्रहार आया करता था। वही मेरी दूध-टैबलेट की यातना का वक़्त होता। यूं तो चित्रहार में कई गीत आते लेकिन उन दिनों रिलीज़ हुई "सोहनी महिवाल" का कोई एक गीत ज़रूर उसमें शामिल होता। गाने अच्छे थे (अन्नू मलिक का संगीत होने के बावजूद!) लेकिन मेरी स्मृति में ये दूध-टैबलेट की यातना के साथ नत्थी होकर जा बैठे। नतीजा यह रहा कि आगे कई बरसों तक जब भी मैं कहीं "सोहनी महिवाल"का कोई गाना सुनता, मेरे मुँह में दूध के साथ टैबलेट का वही भयानक कड़वा स्वाद आने लगता!

... और मधुर संगीत भी मेरे मुँह में बुरा स्वाद छोड़ जाता। रब (और अन्नू मलिक) मुझे माफ़ करे, मेरा इंसाफ करे...!

(चित्र इंटरनेट से)

Comments

Popular posts from this blog

गांधी का धर्म, गांधी के राम

अपने पूरे जीवन में गांधी किसी भी धर्मस्थल में बहुत ही कम गए। अपने इष्ट से जुड़ने के लिए उन्हें कभी किसी धर्मस्थल की ज़रूरत नहीं रही। वे अपने कक्ष में या फिर अपनी कुटिया के बाहर बैठकर प्रार्थना कर लेते थे। धर्म उनके लिए दिखावे की वस्तु नहीं थी।     बीते दिनों अयोध्या में भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई। देश निहाल हुआ। इस दौरान बहुत-सी बातें कहने-सुनने में आईं। यह होना चाहिए था, वह नहीं होना चाहिए था, यह सही हुआ वह गलत आदि। इस बीच कुछ तत्वों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम बीच में लाया गया और जताया गया कि जो कुछ हुआ, उनके आदर्शों के अनुरूप ही हुआ। कारण कि गांधी भी राम को मानते थे, राम राज्य की बात करते थे। किसी की आस्था पर कोई आक्षेप नहीं है मगर यहाँ जान लेना ज़रूरी है कि गांधी के राम और गांधी का राम राज्य क्या थे। गांधी सनातनी थे, धार्मिक थे, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। मगर गांधी की धार्मिकता आध्यात्मिक थी, कर्मकांडी नहीं। उन्होंने धर्म के मर्म को अपने जीवन में उतारा, धार्मिक अनुष्ठानों से दूरी बनाए रखी। आपने-हमने गांधी के सैंकड़ो-हज़ारों चित्र ...

टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।   चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है। इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता थ...

आओ, दीवारों का उत्सव करें

आओ, दीवारों का उत्सव करें  विद्वेष के विषकण से सींचकर धरती पर  दीवारों की फसल लहलहा दें तुम अपनी पहचान का परचम उठाओ, हम अपनी पहचान का तमगा धारें  थामकर अपनी संकुचित पहचानों को, संकीर्णताओं में ही आओ, सुख तलाशें  एका हमें दूषित करता है, चलो आपस में बंट जाएं, छंट जाएं अपनों - परायों के भेद को लेकर  न रहे कोई शक - शुबहा, कोई भ्रम - विभ्रम न छूने पाए हमारी छाया तुम्हें  न स्पर्श हो तुम्हारे वजूद का हमें न तुम्हारे सुख - दुख के छींटे पड़ें हम पर  न हमारी पीड़ा - आनंद का वास्ता हो तुमसे भूल से भी न बन बैठे कोई रिश्ता तुममें, हममें  महफूज़ रहें हम दीवारों के इस ओर, उस ओर तुम अपने खांचों में खुश रहो, हम अपने दड़बों में रहें प्रसन्न इस साझी धरती की छाती पर चलो, दीवारों की लकीरें खींच दें इंसानियत के असहनीय बोझ को भी इन्हीं दीवारों में कहीं चुनवा दें। आओ, दीवारों का उत्सव करें…। (प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)