Skip to main content

Posts

एक रुपए में अपन भी बन गए थे “सदस्य”

Recent posts

आओ, दीवारों का उत्सव करें

आओ, दीवारों का उत्सव करें  विद्वेष के विषकण से सींचकर धरती पर  दीवारों की फसल लहलहा दें तुम अपनी पहचान का परचम उठाओ, हम अपनी पहचान का तमगा धारें  थामकर अपनी संकुचित पहचानों को, संकीर्णताओं में ही आओ, सुख तलाशें  एका हमें दूषित करता है, चलो आपस में बंट जाएं, छंट जाएं अपनों - परायों के भेद को लेकर  न रहे कोई शक - शुबहा, कोई भ्रम - विभ्रम न छूने पाए हमारी छाया तुम्हें  न स्पर्श हो तुम्हारे वजूद का हमें न तुम्हारे सुख - दुख के छींटे पड़ें हम पर  न हमारी पीड़ा - आनंद का वास्ता हो तुमसे भूल से भी न बन बैठे कोई रिश्ता तुममें, हममें  महफूज़ रहें हम दीवारों के इस ओर, उस ओर तुम अपने खांचों में खुश रहो, हम अपने दड़बों में रहें प्रसन्न इस साझी धरती की छाती पर चलो, दीवारों की लकीरें खींच दें इंसानियत के असहनीय बोझ को भी इन्हीं दीवारों में कहीं चुनवा दें। आओ, दीवारों का उत्सव करें…। (प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।   चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है। इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता था। व

गांधी का धर्म, गांधी के राम

अपने पूरे जीवन में गांधी किसी भी धर्मस्थल में बहुत ही कम गए। अपने इष्ट से जुड़ने के लिए उन्हें कभी किसी धर्मस्थल की ज़रूरत नहीं रही। वे अपने कक्ष में या फिर अपनी कुटिया के बाहर बैठकर प्रार्थना कर लेते थे। धर्म उनके लिए दिखावे की वस्तु नहीं थी।     बीते दिनों अयोध्या में भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई। देश निहाल हुआ। इस दौरान बहुत-सी बातें कहने-सुनने में आईं। यह होना चाहिए था, वह नहीं होना चाहिए था, यह सही हुआ वह गलत आदि। इस बीच कुछ तत्वों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम बीच में लाया गया और जताया गया कि जो कुछ हुआ, उनके आदर्शों के अनुरूप ही हुआ। कारण कि गांधी भी राम को मानते थे, राम राज्य की बात करते थे। किसी की आस्था पर कोई आक्षेप नहीं है मगर यहाँ जान लेना ज़रूरी है कि गांधी के राम और गांधी का राम राज्य क्या थे। गांधी सनातनी थे, धार्मिक थे, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। मगर गांधी की धार्मिकता आध्यात्मिक थी, कर्मकांडी नहीं। उन्होंने धर्म के मर्म को अपने जीवन में उतारा, धार्मिक अनुष्ठानों से दूरी बनाए रखी। आपने-हमने गांधी के सैंकड़ो-हज़ारों चित्र देखे होंग

अंकलजी बने शहंशाह

जब लड़कियों को सिगरेट पीते देख अंकलजी का खून खौला, तब उन्होंने तय किया कि उन्हें ही अब कुछ करना होगा। “ शहंशाह ” बनना होगा।     एक बुजुर्ग अंकल हैं। उन्हें कई दिनों से बड़ा गुस्सा आ रहा था। समाज में फैली बुराइयाँ उन्हें एंग्री ओल्ड मैन बना रही थीं। अपने इलाके के एक कैफे के बाहर खड़े होकर सिगरेट पीने वाली लड़कियाँ तो उन्हें खासतौर पर कुपित कर रही थीं। बस, अंकल ने सोच लिया कि बुराई को खत्म करने के लिए अपने को ही कुछ करना होगा। यूँ देश-समाज में ढेरों बुराईयाँ व्याप्त हैं मगर अंकलजी की नज़रों में शायद सबसे ज्वलंत बुराई यही है कि लड़कियाँ सिगरेट पीकर बिगड़ रही हैं। वैसे उन लड़कियों के साथ लड़के भी कैफे के बाहर खड़े होकर सिगरेट पीते थे लेकिन उनकी बात और है। आफ्टर ऑल, बॉइज़ विल बी बॉइज़। खैर, अंकलजी ने तय किया कि उन्हें ही समाज को सुधारने के लिए निकलना होगा। अपने ज़माने में अंकलजी फिल्मों के बड़े शौकीन रहे हैं। और अपने ज़माने के अधिकांश सिने प्रेमियों की ही तरह बिग बी के ज़बर्दस्त फैन भी रहे हैं, जिन्हें तब बिग बी नहीं बल्कि एंग्री यंग मैन कहा जाता था। तो जब लड़कियों को सिगरेट पीते

सवालों के घेरे में आ रही है हमारी “सभ्यता”

यूँ तो विकासक्रम में मानव असभ्यता से सभ्यता की ओर चलता आया है मगर आजकल कभी-कभी लगता है कि कहीं यह यात्रा उल्टी दिशा में तो नहीं होने लगी है…। एक घृणित अपराधी और उसके भाई की कैमरों के सामने “ लाइव ” हत्या को पिछले दिनों करोड़ों लोगों ने किसी थ्रिलर फिल्म की मानिंद देखा। साथ ही इसे अंजाम देने वालों की प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वाहवाही भी की। हत्या के वीडियो सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को प्रेषित किए गए। इस बात को एक तरफ रख दें कि इस घटना में हताहत दो अपराधी ही नहीं, कानून का शासन भी हुआ। यह देखें के हत्या, फिर चाहे वह किसी की भी हो, को चटखारे लेकर देखा-दिखाया गया। और यह आपने, हमने, हम जैसों ने ही किया है। यह इंसान के तौर पर हमारे बारे में क्या कहता है ? हमारी संवेदनाओं या उनके अभाव के बारे में क्या कहता है ? हमारे इंसान कहलाने के हक के बारे में क्या कहता है ? बहुत पहले की बात नहीं है। एक युवक ने अपनी लिव-इन पार्टनर के टुकड़े-टुकड़े कर फ्रिज में जमा किए और फिर एक-एक टुकड़ा इधर-उधर फेंकता गया। एक महिला ने बेटे के साथ मिलकर अपने पति का यही हश्र किया। माता-पिता अपनी ही युवा बेटी की हत्या कर

कहीं कुछ गलत तो नहीं सोच रहे आप?

आज आसपास फैली नकारात्मकता के बीच हमारा दिमाग इस कदर बुरा सोचने का आदि हो गया है कि अक्सर हम सामान्य तर्क से भी परहेज कर जाते हैं।   प्रेशर कुकर के लिए रबर गैस्केट लेने बीच शहर स्थित एक दुकान पर गया था। दुकान कुछ देर पहले ही खुली लग रही थी। कोई अन्य ग्राहक नहीं था। काउंटर पर बैठे अधेड़ व्यक्ति को मैंने पुराना गैस्केट दिखाते हुए कहा कि इस साइज़ वाला दे दीजिए। उसने पुराना गैस्केट हाथ में लेकर गौर से देखा और फिर दुकान में थोड़ा भीतर की ओर रखी टेबल की तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा कि अभी लड़का नहीं है, आप ही वहाँ से फलां नंबर वाला गैस्केट देखकर उठा लीजिए। मुझे बड़ा अजीब लगा। बंदा खुद उठकर सामान देने के बजाए ग्राहक से कह रहा है कि वहाँ रखा है, ढूंढकर ले लो ! मन ही मन सोचा, “ आलसी कहीं का ! अभी तो दिन शुरू हुआ है, अभी से उठकर काम करना टाल रहा है। पता नहीं ऐसे लोग दुकान खोलकर बैठते ही क्यों हैं। ” आदि आदि। खैर, बहस करने में कोई तुक नज़र न आने पर मैं चुपचाप टेबल के पास गया और बताए गए नंबर वाला गैस्केट ढूंढने लगा। टेबल पर फैले सामान के बीच यह ज़रा मुश्किल था। एक-दो मिनिट बीतते-बीतते पीछे क