इन दिनों एक सदस्यता अभियान की चर्चा है, तो अपने को भी बरसों पुराना एक सदस्यता अभियान याद हो आया।
बात तब की है जब अपन नए-नए कॉलेज जाने लगे थे। बिल्कुल कोरे-कच्चे, किताबों और कल्पनाओं की दुनिया से बाहर की “असली” दुनिया से लगभग बेखबर।
एक दिन अपनी ही क्लास का, छोटा-सा चश्मा लगाने वाला, छोटे-से कद का लड़का एक-एक सहपाठी के पास जाकर कोई टास्क आगे बढ़ाता-सा दिखाई दिया। पता चला कि वह छात्र संगठन के लिए सदस्य बना रहा है।
अपनी भी बारी आई। उसने पास आकर पूछा, “क्या तुम मेंबर बनना चाहोगे? बस एक रुपया देना होगा।” संगठन का नाम भी बताया मगर क्या है कि अपने को दूर-दूर तक छात्र संगठनों के नाम से मतलब नहीं था, सो उसने जो नाम बताया, वह भेजे में दर्ज होने से पहले ही फिसलकर बाहर हो गया। अपन ने तो बस इतना पूछा कि इससे क्या होगा…। इस पर उसने बचकाना-सा, रटा-रटाया जवाब दिया कि इससे ये होगा कि तुम्हारा कोई काम हो तो आसानी से हो जाएगा।
तब “ना” कहना अपने को आता नहीं था। टालना या बहाने बनाना तो बिल्कुल भी नहीं। सो, चुपचाप जेब से एक रुपया निकाला और उसकी ओर बढ़ा दिया। उसने बाकायदा एक छोटी-सी रसीद काटी और रिटर्न गिफ्ट के अंदाज़ में पकड़ा दी तथा अगले बकरे की ओर चल दिया। अपन ने रसीद की ओर देखे बगैर उसे घड़ी करके बटुए के एक कोने में जो दबाया, तो फिर कभी उसे निकालकर देखने की ज़ेहमत नहीं उठाई कि आखिर एक रुपए में अपन किस छात्र संगठन के सदस्य बना दिए गए हैं। बाद के सप्ताहों में उस सदस्यता वीर को अपने दोस्तों से कहते हुए सुना कि “आज शाखा में चलेंगे” तो इतना तो समझ आ गया कि वह किस पाले का खिलाड़ी है..।
खैर, अपने को कभी कोई “काम” नहीं पड़ा, सो संगठन या उसका सदस्य बनाने वाले की कभी ज़रूरत नहीं पड़ी। उसने या उसके संगठन ने भी फिर कभी पलटकर नहीं पूछा कि क्यों, तुम्हें कोई काम तो नहीं कराना। पूछते भी क्यों, एक रुपया देकर अपन उनके सदस्यता अभियान के टारगेट में एक आंकड़े का इज़ाफा कर चुके थे…।
(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)
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