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टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!



अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।

 

चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है।

इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता था। वापसी में भी एमवायएच के लिए ही टेम्पो पकड़ा जाता। तब एमवायएच को कोई एमवायएच नहीं कहता था। इसे बड़ा अस्पताल या सात मंजिला अस्पताल या फिर बस, अस्पताल ही कहा जाता था। दूसरे शहर से आए मेहमानों को बड़ा अजीब लगता था जब टेम्पो वाला पूछे, कहां जाओगे?” और हम जवाब दें, अस्पताल”! खैर, अस्पताल पर उतरकर फिर पंद्रह मिनिट की पदयात्रा होती थी। हां, अगर साथ में ज़्यादा सामान हुआ या थोड़ी रईसी वाली फीलिंग हुई, तो एमवायएच से घर तक ऑटोरिक्शा कर लिया जाता था।

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…। और हां, चाबी घुमाकर इंजन स्टार्ट करना टेम्पो संहिता के खिलाफ था। इसे तो रस्सी खींचकर ही स्टार्ट किया जाता था, जिसके लिए नीचे उतरकर बॉनेट खोलना ज़रूरी होता। इसलिए एक बार चालू हो चुके इंजिन को बहुत सोच-समझकर ही बंद किया जाता। टेम्पो दो प्रकार के होते थे। सीधी-उल्टी सीट वाले 6-सीटर या आड़ी-आड़ी सीट वाले 12-सीटर। वैसे इनमें हमेशा तय संख्या से अधिक सवारियां ही ठूंसी जाती थीं। सरक-सरककर बैठो, सरक-सरककर तो जैसे टेम्पो वालों का तकिया कलाम ही हुआ करता था।

दो साल हम ग्वालियर रहे, वहां भी टेम्पो से रोज़ का नाता रहा। घर से स्कूल काफी दूर था, सो टेम्पो से ही आना-जाना होता था। कंपू से पड़ाव तक का किराया होता था 85 पैसे। जाते वक्त तो कंपू से चला टेम्पो पड़ाव पर उतारता था लेकिन वापसी में वह अक्सर बाड़े (महाराजबाड़े) तक ही जाता। फिर बाड़े से कंपू के लिए अलग टेम्पो पकड़ना पड़ता। पड़ाव से बाड़े का किराया होता 60 पैसे और बाड़े से कंपू तक 25 पैसे। एक-दो टेम्पो वाले ऐसे भी थे जो 60 पैसे देने पर अठन्नी रखकर दस का सिक्का लौटा देते। स्कूल स्टूडेंट्स को 10 पैसा डिस्काउंट!

ग्वालियर से फिर इंदौर लौटे, तो भी टेम्पो से रिश्ता बरकरार रहा। तीन साल कॉलेज भी टेम्पो से ही आना-जाना हुआ। यहां तक कि पहली नौकरी के इंटरव्यू के लिए भी टेम्पो में बैठकर ही गया!

समय के साथ टेम्पो का दौर समाप्त होता चला गया। उनकी जगह नगर सेवा नामक मिनी बसों ने ली, फिर वे भी काल के गाल में समा गईं। अब शहर में आई-बस, ई-बस, ई-रिक्शा आदि दौड़ते हैं। मगर एक ज़माना टेम्पो का भी था…।

(चित्र इंटरनेट से)

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