एक घृणित अपराधी और उसके भाई की
कैमरों के सामने “लाइव” हत्या को पिछले दिनों करोड़ों लोगों
ने किसी थ्रिलर फिल्म की मानिंद देखा। साथ ही इसे अंजाम देने वालों की प्रत्यक्ष
या परोक्ष रूप से वाहवाही भी की। हत्या के वीडियो सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को
प्रेषित किए गए। इस बात को एक तरफ रख दें कि इस घटना में हताहत दो अपराधी ही नहीं,
कानून का शासन भी हुआ। यह देखें के हत्या, फिर चाहे वह किसी की भी हो, को चटखारे
लेकर देखा-दिखाया गया। और यह आपने, हमने, हम जैसों ने ही किया है। यह इंसान के तौर
पर हमारे बारे में क्या कहता है? हमारी संवेदनाओं या उनके अभाव
के बारे में क्या कहता है? हमारे इंसान
कहलाने के हक के बारे में क्या कहता है?
बहुत पहले की बात नहीं है। एक
युवक ने अपनी लिव-इन पार्टनर के टुकड़े-टुकड़े कर फ्रिज में जमा किए और फिर एक-एक
टुकड़ा इधर-उधर फेंकता गया। एक महिला ने बेटे के साथ मिलकर अपने पति का यही हश्र किया।
माता-पिता अपनी ही युवा बेटी की हत्या कर उसका शव सूटकेस में डाल दूर फेंक आए …।
इन घटनाओं ने सनसनी उत्पन्न की, लोगों ने किसी क्राइम सिरीज़ की मानिंद टीवी-अखबार
में इनकी खबरों का ‘रसास्वादन’ किया और फिर लौट आए अपनी दिनचर्या पर। हम शायद उस
अवस्था में पहुँच चुके हैं जहाँ हमें लगता है कि “यह सब तो होता रहता है” या शायद यह कि “यह
दूसरों के साथ हो सकता है, हमारे या हमारे आसपास ऐसा कुछ थोड़े ही होना है।” ये किस्से कोई वैयक्तिक
मामले नहीं थे। ये समाज में आ रही विकृतियों के ही परिणाम थे। दरअसल हमारी संवेदनाएं भोतरी हो
चुकी हैं। हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज़्यादा। समाज के स्तर पर ही हम
जाने कब निष्ठुर होने लग पड़े। और यह निष्ठुरता रह-रहकर प्रकट होती रहती है। हत्या
न सही, कई अन्य क्रूरताएं हम आए दिन अपने इर्द-गिर्द होते देखते हैं, होने देते
हैं, यहाँ तक कि परोक्ष रूप से इनमें शामिल भी होते हैं।
मैं किशोर वय का था, जब एक दिन
नानी के साथ दुकान से कुछ सामान लेकर घर आ रहा था। तभी देखा कि हमारी कॉलोनी के
पास स्थित बस्ती पर अतिक्रमण विरोधी मुहिम की मार पड़ी है। एक-एक कर कच्चे-पक्के आशियाने
धराशायी किए जा रहे थे। कॉलोनी के एक परिचित परिवार के हमउम्र लड़के ने अपनी छत पर
से आवाज़ दी, “मैं तो
छत पर से देख रहा हूँ। बड़ा मज़ा आ रहा है!” नानी नीचे खड़ी उसकी माँ से बरबस बोल
पड़ीं, “देखो तो! उन बेचारों के घर उजड़ रहे हैं और इसको मज़ा आ रहा
है।” नानी के मुँह
से यह सुनकर मुझे थोड़ा अजीब लगा। उन बस्ती वालों के प्रति हम लोगों की राय कभी
अच्छी नहीं रही थी। कई तरह की शिकायतें थीं उनसे। तो फिर नानी को आज उनसे हमदर्दी
क्यों हो रही थी? बहुत बाद में समझ पाया कि आपसी गिलों-शिकवों,
मैत्री-बैर से परे होती है शुद्ध मानवता। किसी का बुरा चाहते हुए भी आप किस हद तक
उसका बुरा होते देखना चाहते हैं, यह आपको एक इंसान के तौर पर चीन्हता है।
आज स्थिति यह है कि किसी मामले
में आरोपी पकड़ा जाए या नहीं, उसका मकान ढहाने में जितनी तत्परता प्रशासन दिखाता
है, उतने ही उत्साह से जनता के बीच से भी माँग उठती है कि तोड़ दो उसका मकान। ऐसा
लगता है कि इंसाफ के नाम पर एक परपीड़क आनंद का हमें चस्का-सा लग गया है। जब न्याय
का तकाज़ा निष्ठुरता होने लगे, तो समझ लीजिए कि हमारी सोच में हद दर्जे की विकृति
आ चुकी है। आज दुष्कर्मियों को चौराहे पर फाँसी देने की मांग करना आम है। ज़रा सोचें, ऐसे में चोरी पर हाथ काटने और ईशनिंदा पर सर काटने से कितने दूर रह गए
हैं हम?
यूँ तो विकासक्रम में मानव
असभ्यता से सभ्यता की ओर चलता आया है मगर आजकल कभी-कभी लगता है कि कहीं यह यात्रा
उल्टी दिशा में तो नहीं होने लगी है…।
(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)
Comments
Post a Comment