मन में विचार आता कि बैंक कैलेंडर और डायरी छपवाता ही क्यों है और छपवाता है तो पिताजी इन्हें घर लाते ही क्यों हैं! यह भी कि टीचर्स को डायरी की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है और कैलेंडर ये किसी और से क्यों नहीं माँग लेतीं?
डिजिटल होती ज़िंदगी ने
कागज़-कलम को हमसे दूर कर दिया है। इसके साथ ही डायरी और कैलेंडर के मायने भी बदल
गए हैं। एक समय था, जब घरों, दुकानों और दफ्तरों की दीवारों पर रंग-बिरंगे चित्रों
वाले या फिर सिर्फ बड़े-बड़े अंकों वाले कैलेंडर सजे रहते थे। मोटी-मोटी डायरियों
का भी अपना अलग ही ठस्का हुआ करता था। नया साल आते ही मध्यम वर्गीय परिवारों में
नए कैलेंडर-डायरी का इंतज़ार शुरू हो जाता था। फलां जी की कंपनी के कैलेंडर बड़े
शानदार होते हैं या अलां साहब ने पिछले साल बहुत बढ़िया डायरी दी थी, इस साल भी
उनसे कहकर ले लेंगे…।
मेरे पिताजी बैंक में
सेवारत थे और हर साल घर के लिए व कुछेक लोगों को गिफ्ट करने के लिए अपने बैंक के
कैलेंडर और डायरी लाया करते थे। यह सामान्य शिष्टाचार माना जाता था। इन्हीं में से
एक कैलेंडर-डायरी का जोड़ा मुझे स्कूल जाते समय यह कहकर पकड़ाया जाता कि इसे अपनी
क्लास टीचर को दे देना। अब अपन ठहरे चिर संकोची, सो यह टास्क हमेशा नागवार
गुज़रता। सीट से उठकर, टीचर के पास जाकर कहना कि पापा ने ये आपके लिए भेजे हैं, एक
ऐसा काम था जिसे करते हुए मन करता था कि काश धरती इसी समय फट जाए…! हमेशा यह लगता कि क्लास के बाकी बच्चे सोच रहे होंगे
कि देखो, टीचर को कैसे मक्खन लगा रहा है! अजीब-सा
अपराध बोध होता था। टीचर को यह सालाना गिफ्ट क्लास के बजाए स्टाफ रूम में जाकर दे
आने का भी विकल्प था मगर इसमें बहुत बड़ा खतरा यह था कि वहाँ बैठी अन्य टीचर्स ने
भी अपने लिए कैलेंडर या डायरी की माँग कर डाली तो? वैसे भी
क्लास टीचर के अलावा एक-दो ऐसी टीचर्स थीं जो आते-जाते रोककर कह देती थीं कि
तुम्हारे फादर तो बैंक में हैं ना, उनसे कहकर मेरे लिए एक डायरी ला देना।
तो कुल मिलाकर नए साल की शुरुआत में अनिवार्य रूप से
चलने वाला यह उपक्रम मेरे लिए किसी टॉर्चर से कम न था। मन में विचार आता कि बैंक
कैलेंडर और डायरी छपवाता ही क्यों है और छपवाता है तो पिताजी इन्हें घर लाते ही
क्यों हैं! यह भी
कि टीचर्स को डायरी की ज़रूरत ही क्यों पड़ती है और कैलेंडर ये किसी और से क्यों
नहीं माँग लेतीं? अब सोचने पर भले ही हँसी आए
लेकिन तब नन्हे मन के लिए यह सब बड़े तनाव का सबब हुआ करता था।
मगर कहते हैं न, कि कोई भी स्थिति हमेशा नहीं रहती,
सो यह भी नहीं रही। वक्त ने ठीक-ठीक कब करवट ली, यह तो कह नहीं सकता लेकिन इसकी शुरुआत
शायद तब हुई जब मैं प्रायमरी से निकलकर हाईस्कूल में आया। हाईस्कूल के टीचर्स में
बच्चों से अपने लिए कैलेंडर-डायरी मंगाने का वैसा आग्रह शायद नहीं था। और फिर अपन
भी थोड़े “बड़े” हो चुके होने के नाते खुद को पिताजी से यह कहने की
स्थिति में पाते कि हमारे टीचर को डायरी या कैलेंडर की ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है,
इसलिए रहने दीजिए। फिर यह भी था कि प्रायमरी में तो क्लास टीचर व एक और टीचर ही पढ़ाती
थी, यहाँ अलग-अलग विषय के अलग-अलग टीचर थे। ऐसे में डायरी-कैलेंडर भेंट करने का
शिष्टाचार निभाना भारी पड़ सकता था।
इसके साथ ही मैंने खुद के लिए डायरी की माँग रखनी
शुरू कर दी। टीचर को क्यों देना, आप तो मुझे डायरी दे दीजिए, मैं उसमें लिखूंगा। कुछ
समय तक डायरी में “लिखने” का सिलसिला चला। कभी आज यह किया, कल वह फिल्म देखी
टाइप डायरी लिखी जाती, तो कभी डायरी कोई छोटी-मोटी कहानी या कविता लिखने के लिए आरक्षित
रहती। कभी यह भी होता कि कोई डायरी इतनी सुंदर लगती के अपन फैसला कर लेते- इसमें
कुछ ऐसा-वैसा नहीं, कोई अच्छी-सी चीज़ लिखेंगे। फिर उस “अच्छी-सी चीज़” के इंतज़ार में डायरी बरसों तक कोरी ही पड़ी रहती। उसका
कोरा पड़े रहना मुझे मंज़ूर था लेकिन उसमें कुछ साधारण लिखकर उसे “खराब” कर देना नहीं!
सच पूछें तो यह आदत अभी गई नहीं। जब अखबार में काम
करता था, तो कुछ साल तक दफ्तर की ओर से स्टाफ को डायरी मिलती थी। यह डायरी भी “कुछ अच्छा-सा” लिखने के इरादे से एक तरफ सहेजकर रख दी जाती। यह “कुछ अच्छा-सा” लिखने का वक्त, मूड या विचार कभी मिलता नहीं। नतीजा
यह कि आज भी वे तमाम डायरियाँ कलम के स्पर्श के इंतज़ार में बुक शेल्फ के एक कोने
में पड़ी-पड़ी एंटीक पीस बनती जा रही हैं। जब अच्छा-बुरा जैसा भी हो लिखने का
वक्त, मूड व विचार मिलने की स्थिति आई तो सामने लैपटॉप था..।
और कैलेडर? वे भी गर्दभ
के सींग की भाँति घर की दीवारों से ओझल हो चले हैं। अब डायरी और कैलेंडर क्या,
पूरी दुनिया ही बित्ता-भर के फोन में समा गई है। इसमें सुविधा है, गति है लेकिन सच
पूछें तो जीवन का कैन्वास सिकुड़ गया-सा लगता है।
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