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दफ्तर में सबकी चिंता पालता एक अभिभावक


ये थे महेंद्रजी। चुनौतीपूर्ण स्थितियों में अखबार का विशेष संस्करण निकालने की तमाम दौड़भाग और ऊहापोह के बीच भी एक कर्मचारी के घर के लिए निकलने पर उसके सकुशल पहुँचने की चिंता पालने वाले…।


“नईदुनिया” की फीचर डेस्क पर काम करते हुए मेरे काम के घंटे सुबह से शाम तक हुआ करते थे। मगर 28 फरवरी 2002 का दिन खास था। उस दिन केंद्रीय बजट आने वाला था। तय हुआ था कि इस बार मुख्य अखबार में बजट के रुटीन कवरेज के अलावा एक पुस्तिका भी निकाली जाए, जिसमें बजट पर केंद्रित लेख, विश्लेषण, प्रतिक्रियाएँ आदि हों। इसके लिए अतिरिक्त हाथों की दरकार थी। सुबह जब दफ्तर पहुँचा, तो प्रबंध संपादक महेंद्र सेठिया जी ने कह दिया, “आज तुम्हें देर तक रुकना होगा। शाम तक अपना फीचर का काम कर लो, फिर बजट पुस्तिका के लिए कुछ अनुवाद का काम करना रहेगा।”

मगर वह दिन हर साल आने वाले बजट दिवस से हटकर था। एक दिन पहले हुए गोधरा कांड के विरोध में आहूत भारत बंद के दौरान देश के अलग-अलग भागों से सांप्रदायिक हिंसा की खबरें लगातार आ रही थीं। शाम को जब बजट संबंधी अनुवाद का काम मेरे पास आने लगा, तब तक इंदौर में भी तनाव और कर्फ्यू की आशंका बलवती हो चली थी। इस सारे तनाव के बीच बजट के बेहतरीन कवरेज का प्रयास जारी था। जैसी कि खास मौकों के लिए परंपरा थी, उस दिन स्टाफ के लिए दफ्तर में ही भोजन की व्यवस्था रखी गई थी। रात आठ बजे भोजन किया, तब तक यह तो तय हो चुका था कि कल के अखबार की मेन लीड बजट नहीं, देश भर और खास तौर पर गुजरात में फैली सांप्रदायिक हिंसा होगी। इस बात को लेकर संशय बढ़ता जा रहा था कि देश के साथ ही प्रदेश और शहर के तेज़ी से बिगड़ते माहौल के बीच अलग से पुस्तिका छापना और बंटवाना व्यवहारिक रूप से किस हद तक संभव हो पाएगा। यह राय बन रही थी कि पुस्तिका का विचार ड्रॉप करना होगा। इसके साथ ही मेरे पास अनुवाद के लिए कॉपीज़ का आना भी रुक गया। इस बीच बजट पुस्तिका के अनुवाद के लिए ही खास तौर पर बुलाए गए दो-एक लोग घर रवाना हो चुके थे। मेरे घर से भी फोन आ रहे थे कि तुम्हें निकलने में और कितनी देर है, कॉलोनी में चर्चा है कि इंदौर में भी कर्फ्यू लग गया/ लगने वाला है…।

मेरी सीट महेंद्रजी की टेबल के ठीक पास में ही थी। मगर वे शाम ही से अपनी सीट पर न होते हुए सारा काम को-ऑर्डिनेट करने के लिए एक से दूसरे विभाग में आ-जा रहे थे। आखिर ग्यारह बजे के करीब वे मुझे कंपोज़िंग सेक्शन के बाहर दिखे, तो मैंने कुछ सकुचाते हुए उनके पास जाकर पूछ लिया, “सर, मेरे लिए और कोई काम न हो तो मैं निकलूं?”

पुस्तिका के योजनाकार पास ही खड़े थे। महेंद्रजी ने उनसे मुखातिब होते हुए पूछा, “इनको फ्री कर दें? सुबह से आए हैं…।” उधर से हाँ होते ही महेंद्रजी मुझसे बोले, “ठीक है, तुम निकलो।” फिर यह भी पूछ लिया कि किस रास्ते से जाओगे। मैंने रास्ता बताया तो बोले, “देखो, बहुत केयरफुल रहना। रास्ते में कहीं भीड़ दिखे, तो भीड़ में घुस मत जाना। तुरंत पलटकर वापस आ जाना। मैं यहीं तुम्हारे सोने की व्यवस्था करवा दूँगा।”

ये थे महेंद्रजी। चुनौतीपूर्ण स्थितियों में अखबार का विशेष संस्करण निकालने की तमाम दौड़भाग और ऊहापोह के बीच भी एक कर्मचारी के घर के लिए निकलने पर उसके सकुशल पहुँचने की चिंता पालने वाले…। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुख्य हॉल में सारे संपादकीय साथियों के बीच बैठने वाले महेंद्रजी के ठीक पीछे वाली सीट पर मैंने दस वर्ष से अधिक गुज़ारे। इस दौरान उनकी कार्यशैली ही नहीं, उनकी पूरी शख्सियत को निकट से देखा, जाना। उनका ऊपर से कठोर रूप भी देखा और भीतर से नर्म, बेहद संवेदनशील रूप भी।

एक बार मार्केटिंग विभाग के तत्कालीन प्रमुख महेंद्रजी से किसी इवेंट को लेकर विस्तृत चर्चा करते बैठे थे। अन्य बातों के अलावा यह भी तय हुआ कि अगले कुछ दिनों तक उनके विभाग के साथियों को देर तक दफ्तर में रुकना होगा। कुछ समय पहले ही उस विभाग में एक युवती की नियुक्ति हुई थी। महेंद्रजी ने साफ कह दिया कि लड़की को देर तक नहीं रोकेंगे। मगर विभाग प्रमुख ने ज़ोर दिया कि उसका रुकना भी ज़रूरी है, बहुत काम है। वे बोले, “मैंने उससे बात कर ली है, वह रुकने को तैयार है। वैसे भी उसका घर पास ही में है…।”

इस पर महेंद्रजी कुछ चिढ़ते हुए बोल पड़े, “बात दूर-पास की नहीं है। मेरे भी घर में बच्चियाँ हैं। उनको लौटने में दस मिनट की भी देर हो जाए तो जान सूखने लगती है। बात को समझो…!”

बॉस या मालिक के बजाए अभिभावक के तौर पर सोचने वाले महेंद्रजी का यह रूप न जाने कितनी ही बार सामने आता रहा और उनके व्यक्तित्व का कायल बनाता रहा…।

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