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जन्मदिन का शगुन और “मिश्री” का सबक



जब भरपूर मीठा खाने वाले दिन शगुन के नाम पर मुँह का स्वाद बिगड़ गया और एक परोक्ष सबक मिला…।

 

स्कूल के ज़माने में यह रिवाज़ था कि जन्मदिन पर पूरी क्लास में बाँटने के लिए टॉफी ले जाई जाती। उस दिन यूनिफॉर्म न पहनने की छूट भी होती। यानी यूनीफॉर्म से हटकर कपड़े पहने विद्यार्थी को देखकर पूरे स्कूल को पता चल जाता कि आज इसका बर्थडे है। मेरा जन्मदिन गर्मी की छुट्टियों के दौरान पड़ता और इस प्रकार मैं इस रिवाज़ के पालन से हमेशा वंचित रहा। सच कहूँ तो इससे मुझे निराशा कभी नहीं हुई, बल्कि खुशी ही हुई क्योंकि मुझे यह कभी पसंद नहीं रहा कि पूरी दुनिया जाने कि आज मेरा जन्मदिन है। आप इसे मेरी खब्त कह सकते हैं लेकिन मेरा यह मानना रहा है कि मैं कब पैदा हुआ, यह मेरा निजी मामला है, लोगों को इससे क्या लेना-देना!

खैर, स्कूल में तो मेरा जन्मदिन कभी नहीं मना लेकिन घर पर ज़रूर मनता आया। वह भी साल में एक नहीं, दो-दो बार। एक बार अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार और एक बार पारसी कैलेंडर के अनुसार, जो अंग्रेजी वाले बर्थडे से कुछ दिन पहले आता। यूँ मुख्य जन्मदिन पारसी कैलेंडर वाला ही माना और मनाया जाता। नए कपड़ों के अलावा इस दिन का मुख्य आकर्षण हुआ करता था केक। तब आज की तरह यत्र-तत्र केक शॉप्स नहीं हुआ करती थीं कि जब चाहा कहीं से भी केक लाकर खा लिया। केक खाने का मौका अमूमन अपने या किसी और के बर्थडे पर ही मिलता था। महू में एक एंग्लो-इंडियन आंटी ऑर्डर पर केक बनाया करती थीं, सो केक का ज़िम्मा महू में रहने वाली बुआ ने अपने ऊपर ले रखा था। मेरे व भाई के जन्मदिन पर बुआ महू से केक लेकर आतीं।

मगर केक कटिंग (और ईटिंग) के कार्यक्रम के लिए शाम तक इंतज़ार करना पड़ता था। जन्मदिन की सुबह शुरू होती दूध स्नान से। यूँ स्नान तो साबुन-पानी से ही होता मगर इस स्पेशल बर्थडे बाथ का श्रीगणेश होता शरीर पर एक प्याली भर दूध उड़ेलने से। मम्मी या नानी प्याली में दूध ले आतीं, जिसमें गुलाब की पंखुड़ियाँ छिड़की होतीं और बर्थडे बॉय को विधिवत दुग्ध स्नान करातीं। थोड़ा बड़े होते ही बर्थडे बॉय ने मम्मी-नानी की बाथरूम में एंट्री यह कहते हुए बंद कर दी कि दूध की प्याली दे दो, मैं खुद से नहा लूँगा। उनकी ओर से हिदायत मिलती कि देखो, दूध अपने ऊपर डालना है, फर्श पर ढोल नहीं देना है!

दूध-गुलाब का राजसी स्नान करने के बाद बारी आती नाश्ते की, जिसमें कुछ परंपरागत मीठा ही बनता। या तो सेव (बिना दूध की, पारसी स्टाइल सेवइयाँ) या फिर रवो (दूध-अंडे के साथ बना पारसी स्टाइल सूजी का हलवा)। नाश्ते के बाद होती सुबह की मुख्य रस्म सगन (शगुन)। ड्रॉइंग रूम में एक पटला रखकर उसके आगे रंगोली सजाई जाती। फिर भगवान को दीया लगाने के बाद बर्थडे बॉय को पटले पर खड़ा किया जाता। मम्मी उसके माथे पर टीका लगातीं और हार पहनातीं। फिर उसके हाथ में नारियल, पान का पत्ता, सुपारी और मिश्री पकड़ाई जाती। मिश्री की एक डली बर्थडे बॉय के मुँह में भी रखी जाती। साथ ही मिलती पेरामनी, यानी नकद गिफ्ट। फिर एक-एक कर परिवार के शेष सदस्य भी बर्थडे विश करके पेरामनी भेंट करते। रकम मामूली होती लेकिन रईसी की बड़ी-सी फीलिंग दे जाती।

सगन की रस्म के पूरा होते ही मैं टीका धो-पोंछकर साफ करने दौड़ता। कारण यह कि टीका लगवाने से मुझे हमेशा से चिढ़ रही है। इसे मेरा भ्रम कह लें या कुछ और लेकिन माथे पर टीका लगते ही मुझे सिर भारी व तनावग्रस्त लगने लगता है। तो मैं टीका मिटाने के लिए भागता और पीछे से नानी व बुआ चिल्लातीं कि ऐसा नहीं करते, अपशकुन होता है!

मेरे ग्यारहवें या बारहवें जन्मदिन की बात है। हमेशा की तरह सगन की रस्म हो रही थी। मम्मी ने मिश्री की डली मेरे मुँह में रखी। पहले कुछ पल तक तो सब सामान्य ही लगा, फिर महसूस हुआ कि आज मिश्री में हमेशा जैसी मिठास नहीं है। सगन संपन्न होने पर मैंने मम्मी से शिकायत भी की कि आज मिश्री मीठी नहीं है। वे बोलीं, अभी नाश्ते में मीठी सेवइयाँ खाई थी ना, इसलिए इसकी मिठास कम लग रही होगी। मगर बात कम मीठे की नहीं थी, इस मिश्री में मिठास थी ही नहीं! इसका स्वाद तो कुछ नमकीन और काफी हद तक कसैला लग रहा था! सोचा, जल्दी से चूसकर इसे खत्म करूँ मगर यह मुँह में जल्दी घुलने से भी इंकार कर रही थी। फिर सोचा कि फटाफट चबाकर किस्सा खत्म किया जाए लेकिन आज यह चबाने में भी दाँतों की कड़ी परीक्षा ले रही थी। खैर, जैसे-तैसे चबाकर इसे हलक से उतारा। कुछ देर तो यूँ लगा, मानो इसके टुकड़े गले में फँस ही गए हों। दोपहर बाद गला कुछ सामान्य लगा, हालाँकि मुँह में अजीब-सा स्वाद इसके बाद भी काफी देर तक बना रहा।

मिश्री के इस चरित्र विचलन का राज़ दोपहर में जाकर खुला, जब किचन से मम्मी की आवाज़ आई, अरे! मिश्री तो इस शीशी में रखी है, सुबह तो मैंने उस शीशी में से निकाली थी! …ओहो, वो तो फिटकरी थी!

इतना सुनते ही मैं तनाव में आ गया। इससे पहले मैंने कभी फिटकरी का नाम भी नहीं सुना था। मैं नहीं जानता था कि यह क्या बला है और हमारे घर में क्या कर रही है! डरते-डरते मम्मी से पूछा, मैं तो उसे निगल गया! अब क्या होगा? मम्मी हँसते हुए बोलीं, कुछ नहीं। फिटकरी तो सब साफ कर देती है। तेरा पेट भी साफ हो जाएगा।

खैर, पेट तो ठीकठाक ही रहा लेकिन ऐन बर्थडे पर मुँह का स्वाद बिगड़ गया, जिसे शाम को केक ने जैसे-तैसे दुरुस्त किया।

यह पूरा प्रकरण मानो कह गया कि बचपन गया बच्चू, अब आसन्न किशोरावस्था में सब कुछ मीठा-मीठा नहीं मिलने वाला…!

(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

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