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अरे, ये होली किसने जला दी!


लोग घरों से बाहर निकल रहे थे और जलती हुई होली को हैरत से देख रहे थे। एक-दूसरे से पूछ रहे थे, आठ तो अभी नहीं बजे, होली कैसे जल गई? किसने जला दी? क्यों…? कैसे…?”

 

उस समय मेरी उम्र थी कोई दस-साढ़े दस साल। हम लोग रतलाम में रहते थे। होली आने को थी, तो कॉलोनी के भैया लोगों ने तय किया कि इस साल हम भी अपनी कॉलोनी में सार्वजनिक होलिका दहन का आयोजन करेंगे। भैया लोग याने उम्र में मुझसे कुछ साल बड़े लड़के, जिनकी नई-नई फूट रही दाढ़ी-मुंछ उन्हें बड़ों की-सी ज़िम्मेदारी उठाने को उत्प्रेरित कर रही थी।

तो भैया लोग घर-घर जाकर चंदा जमा करने लगे। कॉलोनीवासियों ने भरपूर सहयोग किया और अच्छा-खासा चंदा जमा हो गया। भैया लोग लकड़ी, कंडे वगैरह खरीद लाए। सजावट, लाइटिंग आदि की भी व्यवस्था कर दी। फिर घर-घर जाकर सबको खबर भी कर दी कि रात आठ बजे फलां गली में होलिका दहन है, आप सबको ज़रूर आना है। कॉलोनी में पहली बार होलिका दहन हो रहा था, सो सभी को उत्साह था।

हम भी समय से पहले होली देखने पहुँच गए। भैया लोगों ने वाकई बहुत मेहनत की थी। होलिका अच्छे से सजी हुई थी। उसके इर्द-गिर्द सुंदर सजावट भी की गई थी। पड़ोस के एक घर से तार डालकर होलिका पर लाइट की झालर लपेटी गई थी, जो झिलमिल करती होलिका की सुंदरता को और बढ़ा रही थी। कुछ देर होलिका को निहारने के बाद घड़ी देखी, तो अभी आठ बजने में देर थी। तय हुआ के उसी गली में रहने वाले एक परिवार के यहाँ जाकर बैठा जाए, जिनके साथ बिल्कुल घर जैसे संबंध थे। हमारी तरह अन्य लोग भी दहन में अभी समय होने के चलते इधर-उधर हो रहे थे। भैया लोग भी तैयारियों से फुर्सत पाकर कुछ देर के लिए शायद अपने-अपने घर चले गए थे। बस, यहीं गलती हो गई…।

हम लोग आठ बजने के इंतज़ार में बैठे गपशप कर रहे थे कि अचानक बाहर कुछ अफरा-तफरी का आभास हुआ। कोई इधर दौड़ रहा था, कोई उधर से चिल्ला रहा था। बाहर निकलकर देखा, तो पाया कि होली धूँ-धूँ कर जल रही थी। लोग घरों से बाहर निकल रहे थे और जलती हुई होली को हैरत से देख रहे थे। एक-दूसरे से पूछ रहे थे, आठ तो अभी नहीं बजे, होली कैसे जल गई? किसने जला दी? क्यों…? कैसे…?” सबसे ज़्यादा भगदड़ आयोजन करने वाले भैया लोगों में मची थी। किसी को सूझ नहीं रहा था कि यह क्या हो गया और अब क्या किया जाए। उधर बिजली की झालर, जो होली जलाने से पहले निकाल दी जाने वाली थी, होलिका पर ही लगी रह गई थी और आग पकड़ चुकी थी। जिन अंकल के घर से बिजली जोड़कर उसे लगाया गया था, उन्होंने फुर्ती दिखाकर चाकू से तार काट दिया, इससे पहले कि जलती झालर के साथ आग उनके मकान में प्रवेश कर जाती।

इधर सवालों का सिलसिला जारी था- पर यह सब हुआ कैसे…? किसने…? क्यों…?” और फिर इन सवालों के जवाब में एक नाम हवा में तैरने लगा- मॉन्टू!

हर गली-मोहल्ले में एक सबसे बदमाश बच्चा होता है ना, तो उस वक्त हमारी कॉलोनी में यह खिताब मॉन्टू को हासिल था। उम्र में मुझसे भी कुछ छोटा मगर कुख्याति ऐसी कि उसके आते ही हर कोई चौकन्ना हो उठता कि ज़रा ध्यान रखो, मॉन्टू आ रहा है। बस, इसी चौकन्नेपन में आज ढिलाई पड़ गई थी। एक-दो गवाहों के बयान हुए कि हमने मॉन्टू को होली के पास देखा था। किसी ने जोड़ा कि हाँ, उसके हाथ में माचिस जैसा कुछ दिखा भी था। मॉन्टू महाराज से पूछताछ होना लाज़िमी था। उन्होंने अपनी उपलब्धि का श्रेय लेने में अधिक झिझक भी नहीं दिखाई।

देखा जाए, तो बच्चे का तर्क अपनी जगह बिल्कुल दुरुस्त था। आज होलिका दहन का दिन है…, होली जलने के लिए तैयार है…, कोई उसे जला नहीं रहा…, तो चलो मैं ही जला दूँ! अब भैया लोगों के रुआंसेपन पर गुस्सा हावी होने लगा। सबने मॉन्टू के पापा की ओर रुख किया। होली खराब हुई सो हुई, बिजली की झालर किराए पर लाई थी, जो जलकर राख हो गई। अब बिजली वाले को उसका मुआवजा देना पड़ेगा। आपके बेटे ने झालर जलाई है, मुआवजा भी आप ही दीजिए।

मगर इससे पहले कि मॉन्टू के पापा कुछ बोलते, उसकी मम्मी ने आदतन मोर्चा संभाल लिया और बोल पड़ी, मॉन्टू तो नादान है पर तुम लोग तो सयाने हो। होली तैयार की थी तो उसकी हिफाज़त करना भी तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी थी। गलती तुमसे हुई है, तुम लोग ही भुगतो। हम लाइट के पैसे नहीं देंगे।

बहस काफी हुई, नतीजा कुछ न निकला। भैया लोगों पर फिर रुआंसापन हावी हो गया। बड़ों ने समझाया कि जो हुआ सो हुआ, अब त्योहार के टाइम मूड खराब मत करो, लाइट के पैसे हम मिल-जुलकर दे देंगे। मगर भैया लोगों का मूड तो खराब हो ही चुका था। अगले दिन धुलेंडी फीकी ही रही।

दो-चार दिन बीते। भैया लोगों ने तय किया कि चाहे जो हो, लाइट के पैसे तो मॉन्टू के पापा से ही वसूलेंगे। वे फिर जा पहुँचे मॉन्टू के घर। … और एक बार फिर मॉन्टू की मम्मी द्वारा बैरंग लौटा दिए गए। यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा। भैया लोग हर दूसरे-तीसरे दिन मुआवजा माँगने जा पहुँचते और मॉन्टू की मम्मी उन्हें खरी-खोटी सुनाकर चलता कर देती।

फिर एक दिन की बात है। संडे था, मॉन्टू परिवार फिल्म देखने के लिए निकलने की तैयारी में था। तभी भैया लोग जा पहुँचे मुआवजा वसूलने। उन्हें देखते ही मॉन्टू की मम्मी भड़क उठी, तुम लोग फिर आ गए! कह दिया न, हम पैसे नहीं देंगे। चलो अब जाओ, हमें पिक्चर के लिए देर हो रही है।

तभी मॉन्टू के पापा श्रीमतीजी से बोल पड़े, तुम लोग तैयार हो गए हो तो निकलो। मैं फटाफट जूते-मोज़े पहनकर, ताला डालकर आ जाऊँगा। ठीक है कहती हुई मॉन्टू की मम्मी अपने लाडले को लेकर निकल पड़ी। भैया लोगों की टोली इस बीच अंगद का पाँव बनी वहीं डटी रही। मॉन्टू महाराज और उनकी मम्मी जैसे ही नुक्कड़ से मुड़कर नज़रों से ओझल हुए, उनके पापा ने जूते-मोज़े एक तरफ पटके और जेब से बटुआ निकालते हुए भैया लोगों से बोले, ये लो तुम्हारे रुपए। लेकिन देखो, आंटी को मत बताना कि मैंने तुम्हें रुपए दे दिए हैं। भैया लोगों को रुपयों से मतलब था, सो उन्होंने भी प्रॉमिस कर दिया कि आंटी को नहीं बताएंगे।

भैया लोगों ने अपना वादा निभाया। उन्होंने आंटी को नहीं बताया कि अंकल ने हमें रुपए दे दिए हैं। मगर और लोगों को न बताने का तो कोई प्रॉमिस नहीं था। सो धीरे-धीरे कॉलोनी के घर-घर में यह बात आम हो गई कि चलो आखिरकार लड़कों को लाइट के पैसे मिल ही गए। सोचता हूँ, जब कॉलोनी के घर-घर में यह बात पता चल गई थी तो यह मॉन्टू की मम्मी के कानों तक भी पहुँची ही होगी! इसके बाद मॉन्टू निवास में क्या महाभारत वगैरह हुई, यह ज्ञात नहीं हुआ।

इस होली के कुछ ही महीनों बाद पिताजी का तबादला हो गया और हम इंदौर चले आए। सो यह पता नहीं कि अगले साल भी भैया लोगों ने होलिका दहन का आयोजन किया या नहीं। वैसे मेरे खयाल से दूध के जलों ने छाछ भी काफी फूँक-फूँककर ही पी होगी…।

(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

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