कोई तीस साल पहले कुछ माह के
लिए मैंने एम आर (मेडिकल
रेप्रेज़ेंटेटिव) की नौकरी की थी। इस दौरान
खंडवा-बुरहानपुर-नेपानगर के टूर पर था। नेपानगर में काम निपटाकर खंडवा लौटना था।
एकाध घंटे के इंतेज़ार के बाद भी बस का अता-पता नहीं था। तभी अखबार के बंडल ले
जाने वाली एक वैन आकर रुकी और उसमें सवार “कंडक्टर” पूछने
लगा कि किस-किसको खंडवा जाना है। पता चला कि यह आम चलन था कि सुबह-सुबह अखबार के
बंडल लेकर आने वाले वाहन वापसी में सवारियाँ ढोते, जिससे ड्राइवर और उसके साथी की
अतिरिक्त कमाई हो जाती। खैर, “कंडक्टर” ने किराया बताया और आठ-दस लोग हामी भरकर वैन में बैठ
गए। नियमित बस का कोई ठिकाना न देखते हुए मैं भी वैन में सवार हो गया। आधा रास्ता
तय होने के बाद “कंडक्टर” सवारियों से पैसे लेने लगा। तभी एक आदमी बोल उठा कि
मैं इतने नहीं, इतने ही रुपए दूंगा क्योंकि हमेशा इतने ही देता हूँ। “कंडक्टर” थोड़ी ना-नुकुर के बाद उससे पाँच रुपए कम लेने को
राज़ी हो गया। इस पर बाकी लोग भी बोल पड़े कि हम भी उतने ही देंगे, हम ज़्यादा
क्यों दें? “कंडक्टर” ने विरोध किया मगर सवारियों की एकता के आगे उसे हार
मानना पड़ी। कम पैसे लेते हुए उसने टिप्पणी की, “आप लोग तो
मेरा सामुहिक बलात्कार कर रहे हो!” इस पर वैन में हँसी गूंज उठी। दुनिया देखना बस शुरू ही कर
रहे अंतरमुखी युवक के तौर पर मुझे हैरानी हुई कि बलात्कार का ज़िक्र यूँ मज़ाक में
भी किया जा सकता है और उस पर सरे-आम हँसा भी जा सकता है।
अब
हैरानी नहीं होती।
तब भी
नहीं, जब लोकतंत्र के कथित मंदिर में कोई माननीय विधायक रेप के अपरिहार्य होने पर
उसका आनंद लेने का घिसा-पिटा और फूहड़ जुमला उछाल दे और माननीय स्पीकर समेत सदन
में मौजूद अधिकांश पुरुष सदस्य उस पर ठहाका लगा बैठें। इसमें हैरानी की कोई बात
नहीं है क्योंकि हमारे समाज में इस वीभत्स अपराध पर मज़ाक बनाना बहुत आम है। कितने
ही चुटकुलों में आप इसे देख सकते हैं। यहाँ तक कि हिरानी और आमिर जैसे संवेदनशील
माने जाने वाले सृजनकर्ता भी “बलात्कार” को मज़ाक में लेकर ब्लॉकबस्टर हिट फिल्म दे सकते
हैं। कोई वीर दास यदि कह दे कि मैं ऐसे देश से हूँ जहाँ दिन में महिलाओं को पूजा
जाता है और रात में उनसे सामुहिक दुष्कर्म किया जाता है, तो हमारी धार्मिक और
राष्ट्रवादी भावनाएं आहत हो जाती हैं। मगर हमारी सहज मानवीय भावनाएं तब आहत नहीं
होतीं जब बलात्कार को हँसने-हँसाने के विषय के रूप में लिया
जाता है। सच पूछें तो हो भी नहीं सकती क्योंकि चहुँ-ओर व्याप्त “माँ-बहन की गालियों” के रूप में हम इस वैधानिक और नैतिक अपराध का
सामान्यीकरण कर चुके हैं। … और इस सामान्यीकरण को सहज स्वीकार कर चुके हैं।
तो कर्नाटक विधानसभा की घटना पर
वही चिर-परिचित अंदाज़ में पार्टीगत आधार पर कुछ आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे, तंज कसे
जाएंगे। महिला आयोग वगैरह मामले का संज्ञान लेने का अपना धर्म निभाएंगे, कुछ जनहित
याचिकावादी दो-चार दिन प्रचार पाकर धन्य होंगे और फिर…
… और फिर हम वापस लग जाएंगे
अपने-अपने काम पर। क्योंकि अपनी सोच को बदलने की ज़रूरत हमें नहीं दिखती। क्योंकि
इसमें व्याप्त सड़न हमें देखना नहीं। हम अपने पाखंडों की पताका उठाकर चलते रहने
में ही संतुष्ट हैं। और संतोषी सदा सुखी रहता है। हँसता है, ठहाके लगाता है…।
(चित्र कर्नाटक के विधायक के. आर. रमेश कुमार का)
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