अब हमारे शिवाजी महाराज बगीचे में हरियाली के बीच नहीं बिराजेंगे, बल्कि “किले” की छाया में खड़े होकर व्यस्त सड़कों से गुज़रता ट्रैफिक निहारा करेंगे। परिवर्तन अपरिहार्य है, इसे स्वीकार करना ही होता है। मगर…
कुछ दिन पहले अखबार में
एक खबर पढ़कर पुरानी स्मृतियों के द्वार खुल गए। खबर थी, “शिवाजी प्रतिमा चौराहे पर
तैयार हो रहा शिवाजी महाराज का किला”। बताया गया कि चौराहे के विकास के तहत प्रतिमा को पीछे की
ओर शिफ्ट कर उसके पीछे किले का स्वरूप तैयार किया जाएगा। मगर एक बात अनकही रह गई।
मेरे लिए और निश्चित ही मेरे जैसे और भी कई लोगों के लिए यह स्थान सिर्फ एक चौराहा
या प्रतिमा स्थल कभी नहीं रहा। मेरे लिए इस स्थान की स्मृतियाँ उस बगीचे से जुड़ी
रही हैं, जो यहाँ हुआ करता था। हमारे लिए यह कभी भी “शिवाजी स्टैच्यू” या “शिवाजी चौराहा” नहीं था,
हमेशा “शिवाजी
पार्क” था।
साल 1975 में जब हम एमआईजी कॉलोनी से लालाराम नगर
शिफ्ट हुए, तब घर के सबसे पास स्थित सार्वजनिक उद्यान यही था। कहने को कॉलोनी में
भी बगीचे के लिए जगह चिह्नित थी लेकिन उस तिकोने ज़मीन के टुकड़े में बेशरम की
झाड़ियों, विभिन्न जंगली पौधों और खुली नाली के पानी से निर्मित दलदल के ही दर्शन
होते थे, साथ ही बरसात के मौसम में छोटे-बड़े सांपों के भी! तो घर के सबसे पास पड़ने
वाला बगीचा यह शिवाजी पार्क ही था। उन दिनों मनोरंजन के सीमित साधन हुआ करते थे।
महीने में एकाध फिल्म देखी जाती थी। बाकी संडे की शाम अमूमन पार्क में जाना होता
था। चिड़ियाघर थोड़ी ज़्यादा दूरी पर था। वहाँ आने-जाने पर रिक्शा का खर्चा होता
था, प्रवेश टिकट का खर्चा अलग से। सो वहाँ बारंबार जाना नहीं होता था। तीसरा
विकल्प था नेहरू पार्क, जो घर से और दूर पड़ता था, यानी रिक्शा का और ज़्यादा
खर्च। शिवाजी पार्क तो पैदल ही आ-जा सकते थे। सो संडे की शाम हमारी दौड़ आम तौर पर
शिवाजी पार्क तक ही होती थी।
व्यस्त चौराहे से सटे
होने के बावजूद यहाँ एक शीतल शांति का एहसास होता था। शिवाजी महाराज की प्रतिमा के
इर्द-गिर्द अलग-अलग खांचों में बँटी सुनियोजित हरियाली। बड़े सजावटी पेड़ों के साथ
ही भांति-भांति के रंग-बिरंगे फूलों वाले छोटे-छोटे पौधे, जिनकी देखरेख कुशल माली
बाबा किया करते थे। साथ ही पूरे बगीचे में हरी-भरी लॉन। शिवाजी महाराज की प्रतिमा एक
कुंड के बीच स्थापित थी, जिसमें लगे फव्वारे शाम को एक निश्चित समय पर चल पड़ते।
अंधेरा होने पर, मूर्ति पर पड़ती विशेष रोशनी में ये फव्वारे एक अलग ही आभा
बिखेरते। मूर्ति से कुछ दूरी पर दायें-बायें दो और छोटे कुंड थे, जिनमें एक-एक
फव्वारा अलग से चलता। और हाँ, उद्यान के दोनों प्रवेश द्वारों के पास एक-एक तोप
खड़ी हुआ करती थी, जिनके बारे में हमेशा जिज्ञासा रहती कि ये असली हैं या सजावटी।
बाद में इन तोपों के पहिये इनके वज़न तले जवाब देने लगे, तो उन्हें हटाकर सीमेंट
के लघु स्तंभों के सहारे दोनों तोपों को खड़ा किया गया। एक कोने में लायन्स क्लब
द्वारा बनवाई गई प्याऊ थी। दो दिशाओं में सिंह के मुँह की आकृतियाँ। नल खोलने पर
सिंह के मुँह में से पानी की धार आती।
पार्क में कोई झूला नहीं
था, इसके बावजूद बच्चे खेलने के लिए कोई-न-कोई उपाय तलाश ही लेते। कभी हाथी-घोड़े
की मानिंद तोपों की सवारी करते, तो कभी प्याऊ वाले शेर से बतियाने लगते। जब
फव्वारों का चलना अनियमित हो गया और कुंड लंबे समय तक सूखा रहने लगा, तब कुंड में
उतरकर धमाचौकड़ी मचाना भी “खेल” था। यूँ कुंड में पानी भरा होने पर भी कई बच्चे मूर्ति के
पीछे की ओर बने नन्हे-से पुलिया-नुमा रास्ते से उस चबूतरे तक पहुँच जाते, जिस पर
प्रतिमा खड़ी थी। पार्क के स्वर्णिम काल में यह ज़रा मुश्किल था क्योंकि चौकीदार
लगातार कुंड में घुसपैठ करते बच्चों के हंकालता रहता। फूल तोड़ने
की चेष्टा करने वालों के पीछे तो वह अक्सर डंडा लेकर दौड़ता भी दिख जाता।
हमारे लिए यहाँ आकर एक और
“खेल” खेलना आम था। शाम को एबी
रोड से मुंबई-पुणे तरफ जाने वाली निजी बसें एक के बाद एक निकलतीं और हम उनका हिसाब
रखते चलते… विजयंत की बस गई, अब पवन ट्रैवल्स की बस आएगी, फिर सोढ़ी, फिर…। आज
अलां बस पहले निकल गई, फलां अब तक नहीं आई…! अरे! यह तो वही बस है जिसमें अपन
पिछले साल बंबई गए थे…! आज यह सब बचकाना लगता है मगर
तब इस “खेल” में भी रोमांच मिल जाया
करता था।
वैसे शिवाजी पार्क की
अहमियत हमारे लिए पार्क तक ही सीमित नहीं थी। अपने आप में गंतव्य होने के साथ ही
यह पार्क आसपास के खाऊ ठीयों पर चढ़ाई के लिए हमारा आधार शिविर भी था। अव्वल तो
पार्क के ठीक बाहर मूंगफली, भुट्टे, पॉपकॉर्न आदि बेचने वाले हमारी सेवा में तैनात
रहते थे। साथ ही होते थे उल्टी तिपहिया साइकलनुमा गाड़ी पर बैडमिंटन रैकेटनुमा
डुगडुगी बजाते आइसक्रीम बेचने वाले। जॉय आइसक्रीम, एस्कीमो आइसक्रीम, क्वॉलिटी आइसक्रीम…
नाम अलग-अलग होते, माल लगभग एक-सा। सार्वजनिक स्थान पर मूंगफली, आइसक्रीम आदि खाने
के बाद कागज़-पन्नी कचरापेटी में डालने का सबक हमने पहले-पहल इसी पार्क में सीखा।
यह तो हुई पार्क के बाहर
लगने वाले खोमचों की बात। पूर्वी दिशा में पार्क के ठीक सामने स्थित व्हाइट चर्च
की दीवार से सटकर, कृषि कॉलेज की ओर जाती सड़क किनारे कुछ गुमटियों में भी खाऊ
ठीये हुआ करते थे। इनमें सबसे लोकप्रिय था जॉनी हॉटडॉग, जो बाद में छप्पन दुकान की
शान बना। पार्क से घर लौटते हुए कई बार हम यहाँ से हॉटडॉग पैक करवाते हुए निकलते।
या फिर पार्क में ही बैठकर इनका लुत्फ लेते। पार्क के ठीक पीछे स्थित छोटे नेहरू
स्टेडियम की परिधि में बनी दुकानों पर तब मोटर मैकेनिकों का एकाधिकार नहीं था।
पार्क के पश्चिम तरफ स्टेडियम की दो-एक दुकानों को मिलाकर एक रेस्त्रां खुला था। यूँ
तो यहाँ मुख्यत: दोसा,
वड़ा सांभार आदि मिलता था लेकिन एक नई डिश से भी यहीं पहला साक्षात्कार हुआ था-
पाव भाजी। सो यह रेस्त्रां जल्द ही हमारा प्रिय बन गया। खुले आसमान के नीचे लगी
टेबल-कुर्सियों पर बैठकर भोजन करने का मज़ा ही कुछ और था। अगर मुझे ठीक याद है, तो
इसके मालिक/
मैनेजर मिस्टर राव नामक दक्षिण भारतीय सज्जन थे। मिलनसार व्यक्ति थे, कई बार हमारी
टेबल पर आकर पिताजी से बतियाने लगते। स्टेडियम की परिधि में ही व्हाइट चर्च की ओर
भी एक सरदारजी का रेस्त्रां खुला था, जहाँ ठेठ उत्तर भारतीय स्टाइल का वेज- नॉन
वेज भोजन उपलब्ध होता था। हमारी चटोरी जिह्वा को यहाँ का स्वाद भी रास आ गया था।
वक्त का पहिया घूमता गया
और इसके साथ ही शिवाजी पार्क अच्छे-बुरे दिन देखता गया। इधर टीवी आया, तो संडे की
शामों को दूरदर्शन पर आने वाली “हिंदी फीचर फिल्म” हमारे लिए ज़्यादा बड़ा
आकर्षण बन गई। और फिर बचपन की बेफिक्र फुर्सतों
की जगह “बड़े होने” की व्यस्तताओं ने ले ली। शिवाजी पार्क जाना कम होता
चला गया और फिर यह सिलसिला थम ही गया। बीते बरसों में कई बार उस ओर से गुज़रते हुए
सोचा कि एक दिन फिर से इस पार्क में जाना है मगर वह दिन कभी नहीं आया। कुछ अरसा
पहले सड़क चौड़ीकरण के नाम पर करीब आधा पार्क शहीद हो गया और अब जो बचा था, उसकी
जगह भी “किला” खड़ा होने जा रहा है।
विकास का निर्मम बुलडोज़र हरियाली
को रौंदने से झिझकता नहीं, गुजिश्ता दौर की यादगार धरोहरों को धूल-धूसरित करने से
ठिठकता नहीं। विकास की अपनी धुन होती है, अपनी ज़िद होती है और शायद अपनी विवशताएं
भी। मसलन, नई इबारत लिखने से पहले पुरानी इबारत मिटाने की विवशता…। आज
कॉलोनी-कॉलोनी में उद्यान विकसित हो गए हैं, ये काफी अच्छे भी हैं मगर…। आप चाहें
तो इसे घर की मुर्गी की बेकद्री कह लीजिए पर इन बगीचों में जाकर बैठने में वह बात
नहीं जो मोहल्ले से बाहर निकलकर किसी सार्वजनिक उद्यान में जाने के अनुभव में होती
है।
तो अब हमारे शिवाजी महाराज बगीचे में हरियाली के बीच नहीं बिराजेंगे, बल्कि “किले” की छाया में खड़े होकर व्यस्त सड़कों से गुज़रता ट्रैफिक निहारा करेंगे। परिवर्तन अपरिहार्य है, इसे स्वीकार करना ही होता है। मगर शिवाजी महाराज से क्षमा सहित, यह अफसोस तो सदा रहेगा कि “गढ़ आला, पण बाग गेला”।
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