Skip to main content

खट्टा-मीठा फूल और महकती मदर-इन-लॉ!


गाफिल कान और खुराफाती दिमाग कुछ भी रच सकते हैं। ग्रीन कलर के पिल्ले से लेकर खट्टे-मीठे फूल और महकती हुई मदर-इन-लॉ तक, कुछ भी…

 

कहने और सुनने के बीच अक्सर हादसे हो जाते हैं। ये हादसे फिल्मी गीत सुनने में कुछ ज़्यादा ही होते हैं। बचपन में मेरे कानों ने ऐसे हादसों को खूब अंजाम दिया है। कुछ लोग अपने में ही इस कदर खोए रहते हैं कि किसी का कहा हुआ सुनने से ज़्यादा वह सुन लेते हैं जो उन्हें जम जाए। बचपन में मैं भी इन्हीं लोगों में शामिल था और इस आदत से पूरी तरह छुटकारा पा लेने का दावा अब भी नहीं कर सकता। खैर, काफी कुछ विविध भारती और कुछ-कुछ मौके-बेमौके यहाँ-वहाँ बजने वाले लाउडस्पीकरों की बदौलत हिंदी फिल्मी गीत बचपन का अभिन्न अंग रहे। बस, गीत श्रवण के इसी सिलसिले में कभी अपने सीमित शब्द ज्ञान के कारण और कभी असीमित कल्पना शक्ति के चलते हादसे होते रहे। आज याद आ रहे ऐसे ही कुछ हादसे आप भी जान लीजिए…।

हरियाला पिल्ला बोला रे

मैं बहुत छोटा था जब गुड्डीका गीत बोले रे पपीहरा खूब बजा करता था। मैं इसे “Puppy हरा समझता था और कभी-कभी सोचता था कि यह हरे रंग का Puppy मुझे क्यों कभी नहीं दिखा! मुझे तो केवल काले, सफेद, भूरे रंग के Puppy ही दिखते थे…।

अपने सुधाकर अंकल

उसी दौरान बॉबी ने देश में तहलका मचा रखा था। पिताजी सफारी का रेकॉर्ड प्लेयर खरीद लाए थे और उसके साथ आया था बॉबी का एलपी रेकॉर्ड। नतीजा यह कि बॉबी के आठों गाने मुझे कंठस्थ हो गए थे। मगर यहाँ भी हादसा हो गया। पहले ही गीत मैं शायर तो नहीं में जब शैलेंद्र सिंह गाते हैं, सोचता हूँ अगर मैं दुआ माँगता, हाथ अपने उठाकर मैं क्या माँगता… तो मुझे यह आज अपने सुधाकर मैं क्या माँगता सुनाई देता था! यह मत पूछिए क्यों। तब हमारे पड़ोस में एक सुधाकर अंकल रहते थे और मेरे कान उनका नाम सुनने के आदी थे, शायद इसलिए…।

धमाधम ड्रम

उस दौर का एक और सुपरहिट गीत था हरे राम हरे कृष्ण का दम मारो दम। अब उस समय इतनी समझ तो थी नहीं कि यह दम मारना क्या होता है। तो मैं इस गाने को धम मारो धम के तौर पर सुनता था। सोचता था कि गाने वाली अपने साथी को धमाधम ड्रम बजाने को कह रही है। आखिर गाने के दौरान ऑर्केस्ट्रा में ड्रम की दमदार आवाज़ भी तो छाई रहती है!

धोबीजी का स्वागत है

मेरा जीवन नामक एक फिल्म आई थी, जिसका गीत तेरा जोगी आया, तेरा जोगा आया काफी चला था। रेडियो पर जब भी यह गीत आता, मुझे बड़ा भला लगता था। दिक्कत यह थी कि मैं इसे तेरा धोबी आया सुनता, समझता और मानता था। साथ ही थोड़ा हैरान भी होता था कि धोबी के आने में भला ऐसी कौन-सी बड़ी बात है कि लोग इतना खुश होकर गाना गा रहे हैं!

पर्दा है, नहीं है

अमर अकबर एंथोनी की कव्वाली पर्दा है पर्दा लंबे समय तक गली-गली गूंजी थी। अपन जानते नहीं थे कि यह पर्दानशीं क्या बला होती है। सो जब रफी साहब गाते थे पर्दे के पीछे पर्दानशीं है, पर्दानशीं को बेपर्दा न कर दूँ तो… तब अपन सुनते थे पर्दे के पीछे पर्दा नहीं है, पर्दा नहीं को मैं पर्दा न कर दूँ तो…

महकती मदर-इन-लॉ

सत्तर का दशक खत्म होते-होते एक फिल्म आई थी बदलते रिश्ते। इसका एक गीत काफी चला था, मेरी सांसों को जो महका रही है। हँसिएगा मत, मगर तब न जाने क्यों मेरे कान सांसों वाली पहली बिंदी नहीं सुन पाते थे और मैं इसे मेरी सासों को जो महका रही है सुनता था। फिल्म में हीरोइन रीना रॉय दो प्रेमियों ऋषि कपूर और जितेंद्र के बीच उलझी हुई दिखाई गई थी, सो मेरी बाल बुद्धि को लगा कि शायद वह अपनी दो संभावित सासु माँओं के बारे में कुछ गा रही है…।

दो भाषा, एक सवाल

रेडियो पर पचास-साठ के दशक के गीत ज़्यादा बजते थे। मधुमति का गीत घड़ी-घड़ी मोरा दिल धड़के तभी से मेरा मन मोहता रहा है। बस, हादसा यह हुआ के हाय धड़के, क्यों धड़के को मैं “Why धड़के, क्यों धड़के सुनता-समझता था। मुझे लगता था कि शायद हीरोइन को अपनी जिज्ञासा शांत करने की इतनी उत्कंठा है कि अपना सवाल दो-दो भाषाओं में पूछ रही है!

स्वीट-सॉर फ्लावर

सरस्वतीचंद्र का मीठा-सा गीत फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है भी रेडियो पर खूब आता था। मैं अपनी धुन में इसे कुछ यूँ सुनता था, फूल तुम्हें भेजा है खट्टमीठ, फूल में ही मेरा दिल है

शर्माजी हाज़िर होSSS

बर्मन दादा की आवाज़ में बंदिनी का सदाबहार गाना ओ रे मांझीSSS” सदा से मेरे सबसे प्रिय गीतों में से रहा है। यह मुझे तब से भाता रहा है, जब मैं ओ रे मांझीSSS” की टेर को शर्मा जीSSS”  समझता था। आस-पड़ोस में काफी सारे शर्माजी जो रहते थे!

T for…

मेरे स्कूली जीवनकाल में बच्चों के लिए प्रेरणास्पद गीतों में जागृति का गीत आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की प्रमुख माना जाता था। पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को तो यह खूब बजता था। इसमें प्रदीपजी जब इस मिट्टी से तिलक करो गाते, तो मुझसे सुनने में हादसा हो जाता। मैं इसे इसमें T से तिलक करो सुनता था। बात लॉजिकल भी लगती थी- अगर मास्टरजी बच्चों को पढ़ा रहे हैं, तो अल्फाबेट तो पढ़ाएंगे न… T for Tilak…!


(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

Comments

  1. मजा आ गया सर। और वो सारी गपशप भी याद आ गई जो इस बारे में हम किया करते थे। मुझे सिर्फ पपीहरा ही मालूम था बाकी किस्से नए थे इसलिए और मजा आया। मुझे मालूम है कि फिल्मों, गानों आदि के मामले में भी आप इंसायक्लोपीडिया से बढक़र हैं। इंतज़ार रहेगा कि आप इस कड़ी में और भी लिखें।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

गांधी का धर्म, गांधी के राम

अपने पूरे जीवन में गांधी किसी भी धर्मस्थल में बहुत ही कम गए। अपने इष्ट से जुड़ने के लिए उन्हें कभी किसी धर्मस्थल की ज़रूरत नहीं रही। वे अपने कक्ष में या फिर अपनी कुटिया के बाहर बैठकर प्रार्थना कर लेते थे। धर्म उनके लिए दिखावे की वस्तु नहीं थी।     बीते दिनों अयोध्या में भव्य राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुई। देश निहाल हुआ। इस दौरान बहुत-सी बातें कहने-सुनने में आईं। यह होना चाहिए था, वह नहीं होना चाहिए था, यह सही हुआ वह गलत आदि। इस बीच कुछ तत्वों द्वारा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम बीच में लाया गया और जताया गया कि जो कुछ हुआ, उनके आदर्शों के अनुरूप ही हुआ। कारण कि गांधी भी राम को मानते थे, राम राज्य की बात करते थे। किसी की आस्था पर कोई आक्षेप नहीं है मगर यहाँ जान लेना ज़रूरी है कि गांधी के राम और गांधी का राम राज्य क्या थे। गांधी सनातनी थे, धार्मिक थे, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता। मगर गांधी की धार्मिकता आध्यात्मिक थी, कर्मकांडी नहीं। उन्होंने धर्म के मर्म को अपने जीवन में उतारा, धार्मिक अनुष्ठानों से दूरी बनाए रखी। आपने-हमने गांधी के सैंकड़ो-हज़ारों चित्र देखे होंग

अंकलजी बने शहंशाह

जब लड़कियों को सिगरेट पीते देख अंकलजी का खून खौला, तब उन्होंने तय किया कि उन्हें ही अब कुछ करना होगा। “ शहंशाह ” बनना होगा।     एक बुजुर्ग अंकल हैं। उन्हें कई दिनों से बड़ा गुस्सा आ रहा था। समाज में फैली बुराइयाँ उन्हें एंग्री ओल्ड मैन बना रही थीं। अपने इलाके के एक कैफे के बाहर खड़े होकर सिगरेट पीने वाली लड़कियाँ तो उन्हें खासतौर पर कुपित कर रही थीं। बस, अंकल ने सोच लिया कि बुराई को खत्म करने के लिए अपने को ही कुछ करना होगा। यूँ देश-समाज में ढेरों बुराईयाँ व्याप्त हैं मगर अंकलजी की नज़रों में शायद सबसे ज्वलंत बुराई यही है कि लड़कियाँ सिगरेट पीकर बिगड़ रही हैं। वैसे उन लड़कियों के साथ लड़के भी कैफे के बाहर खड़े होकर सिगरेट पीते थे लेकिन उनकी बात और है। आफ्टर ऑल, बॉइज़ विल बी बॉइज़। खैर, अंकलजी ने तय किया कि उन्हें ही समाज को सुधारने के लिए निकलना होगा। अपने ज़माने में अंकलजी फिल्मों के बड़े शौकीन रहे हैं। और अपने ज़माने के अधिकांश सिने प्रेमियों की ही तरह बिग बी के ज़बर्दस्त फैन भी रहे हैं, जिन्हें तब बिग बी नहीं बल्कि एंग्री यंग मैन कहा जाता था। तो जब लड़कियों को सिगरेट पीते

टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।   चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है। इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता था। व