जिस तरह धीरे-धीरे पास आए थे, उसी तरह हौले-हौले अंधेरे में दूर होते गए आस्था में सराबोर स्वर। कारण समझ नहीं आया पर दिलो-दिमाग को भला-भला-सा महसूस करा गया यह अनुभव।
अब वह आवाज़ काफी पास आ चुकी थी। ज़्यादा कुछ नहीं, बस झांझ, मंजीरे,
हारमोनियम और ढोलक की आवाज़ थी। साथ में तालियाँ और भक्तों के कंठ से निकलते भजनों
के मधुर सुर। गगनभेदी जयकारे नहीं, श्रृद्धा में झुकी-सी धीमी-धीमी आवाज़… भोर की
शुचिता को पूरा सम्मान देती हुई। जैसे माँ अपने बच्चे को लगभग फुसफुसाहट भरी आवाज़
में उठाकर नींद के आगोश से बाहर लाती है कि कहीं वह चौंककर, डरकर न उठे, कुछ उस
तरह।
टोली ज़्यादा बड़ी नहीं थी। कुछ ही देर में घर के सामने से निकल गई और फिर जिस
तरह धीरे-धीरे पास आए थे, उसी तरह हौले-हौले अंधेरे में दूर होते गए आस्था में
सराबोर स्वर।
कारण समझ नहीं आया पर दिलो-दिमाग को भला-भला-सा महसूस करा गया यह अनुभव।
अब सोचता हूँ, तो यह न जाने किस युग की बात लगती है। आजकल “प्रभातफेरियों” का चलन बहुत बढ़ गया है मगर बैंड-बाजे, डीजे और कई
बार तो बम-पटाखों के शोर के साथ निकलने वाले इन मजमों, जिनके सूत्रधार अक्सर
राजनीतिज्ञ होते हैं, का उस पहली-पहली प्रभातफेरी से कोई संबंध नहीं दिखता जो मैंने
अनुभव की थी…।
(प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)
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