ऐसा लग रहा था कि खुशी के अतिरेक में वे ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे। फिर “मतलब…” के आगे जोड़ बैठे, “हमारे लिए तो वो भगवान हैं।”
अधेड़ उम्र के
वे सज्जन घर में बने पापड़, अचार आदि बेचने आया करते थे। साथ ही त्योहार के आसपास
गुझिया, पूरनपोली, अनारसे, गजक आदि। चुनिंदा घरों में ही जाते, जहाँ उनके नियमित
ग्राहक होते। हमारे यहाँ उनका आना कैसे शुरू हुआ, ठीक से याद नहीं मगर लंबे समय तक
वे आते रहे। कपड़ा मिल में नौकरी छूट गई थी, जिसके बाद यही उनकी आमदनी का स्रोत
था। वे स्वभाव से ज़बर्दस्त बातूनी थे, तिस पर मेरे पिताजी चूँकि धाराप्रवाह मराठी
बोल लेते थे और मराठीभाषियों से उनकी ही भाषा में बात करते थे, सो हमारे घर पर इन
सज्जन का स्टॉपेज ज़रा लंबा ही खिंच जाता था। मेरी उनसे मुलाकातें कम ही होतीं,
क्योंकि जब वे आते, मैं दफ्तर में होता।
बात उन दिनों
की है, जब कथित अण्णा आंदोलन अपने चरम पर था। मैं “कथित” इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा शुरू से ही मानना था कि अण्णा हज़ारे तो महज़
मुखौटा हैं, पीछे से अन्य शक्तियाँ उन्हें संचालित कर रही हैं। कालांतर में यह बात
बहुत हद तक सिद्ध भी हो गई। खैर! उस दिन इतवार था। सरकार और संसद
से अपनी मुख्य माँगें मनवा लेने के बाद अण्णा अपना बारह दिन से चला आ रहा अनशन
समाप्त करने वाले थे। उसी दिन उन सज्जन का आना हुआ। खुशी से फूले नहीं समा रहे थे।
खरीद-फरोख्त निपटाते ही अण्णा की “जीत” की बात छेड़
दी। भाव विभोर होते हुए बोले, “बहुत खुशी हो रही है आज, बहुत खुशी…।
मतलब…।” ऐसा लग रहा था कि खुशी
के अतिरेक में वे ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे। फिर “मतलब…”
के आगे जोड़ बैठे, “हमारे लिए तो वो भगवान हैं।”
यह सुनकर मैं पल भर को सन्न रह गया। भगवान…?!!!
उन सज्जन की पृष्ठभूमि के बारे में जितना मैं जानता हूँ, दावे से कह सकता हूँ
कि वे शायद ही समझते होंगे कि यह लोकपाल है क्या बला और संसद ने जो प्रस्ताव पारित
किया उसका क्या अर्थ है। वे तो बस इतना समझते थे (या
कहें कि एक प्रायोजित जन विमर्श द्वारा उन्हें समझाया गया था) कि एक संत पुरुष
निस्वार्थ भाव से लोगों के लिए सत्ता से लड़ते हुए अपनी जान की बाज़ी लगा बैठा था।
उस “संत पुरुष” को भगवान का दर्जा देने के लिए इतना काफी था। उस
दिन समझ आया कि आम हिंदुस्तानी कितनी आसानी से किसी को भगवान का दर्जा दे सकता है।
यह भी कि कोई नया “भगवान” लोगों के गले उतार देना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है, जब हर संकट के हल के
लिए किसी तारणहार की राह तकना लोगों की आदत में शुमार हो।
खैर, बेटे
द्वारा अच्छा कमाना शुरू कर देने के बाद उन सज्जन का आना कम हो गया और फिर पूरी
तरह बंद हो गया। सोचता हूँ, इतने साल बाद भी क्या वे अपने इन भगवान को वही दर्जा
दे रहे होंगे या फिर रात गई बात गई की तर्ज पर किसी नए भगवान की ताजपोशी हो चुकी
होगी…!
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