गंभीर विमर्श
हमें बोर करता है। चीख-पुकार, अर्थहीन झगड़े, कल्पित षड़यंत्र हमें रास आ गए हैं।
यह सब कोई रातो-रात नहीं हुआ है, इस भटकाव ने क्रमिक रूप से हमारे इर्द-गिर्द अपना
जाल बुनकर हमें अपने पाश में लिया है।
इन दिनों देश
के एक बड़े राज्य में और मेरे प्रदेश के एक बड़े भाग में चुनावी शोर चरम पर है।
यूँ चुनावी बेला तीखे आरोप-प्रत्यारोप, खोखले वादों और बड़बोले बयानों के लिए जानी
जाती है, भारत ही नहीं बल्कि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में, मगर…।
मगर इन दिनों
जो देखने में आ रहा है, वह इससे कहीं बढ़कर है। भाषा की मर्यादा तो खैर कभी की
लांघी जा चुकी है, प्रभावी भाषण कला के नाम पर फिल्मी (या कहें नौटंकीनुमा) डायलॉगबाज़ी अब आम है। साथ ही नमूदार हैं अतिरंजित
भावभंगिमाएँ। गंभीर विमर्श के लिए दूर-दूर तक कोई स्थान नहीं, अति नाटकीयता का
बोलबोला। हैरत यह कि इस सबसे उस आम जनता के माथे पर शिकन तक नहीं, जिसकी भलाई के नाम
पर यह सारा प्रपंच चल रहा है। ऐसा लगता है कि इसे “न्यू
नॉर्मल” के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। आखिर यह विकृति सामान्य के तौर पर
स्वीकार्य कैसे हो गई?
नव-संपन्नता अपने साथ सतहीपन और आडंबर की विकृतियाँ लेकर ही आती है। बीती सदी
के आखिरी दशक में उदारीकरण के चलते मध्यम वर्ग ने इसी नव-संपन्नता का स्वाद चखा।
चूँकि यही वर्ग बहुत हद तक शेष तबकों की भी सोच और व्यवहार की धारा तय करता है, सो
इसकी विकृतियों का भी विस्तार हुआ। ज़रा अपने आसपास गौर करें,
तत्व पर तमाशे के हावी होने की विकृति राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि हमारे जीवन
के लगभग हर पहलू में घर कर गई है। गंभीर विमर्श हमें बोर करता है। चीख-पुकार,
अर्थहीन झगड़े, कल्पित षड़यंत्र हमें रास आ गए हैं। यह सब कोई रातो-रात नहीं हुआ
है, इस भटकाव ने क्रमिक रूप से हमारे इर्द-गिर्द अपना जाल बुनकर हमें अपने पाश में
लिया है। याद कीजिए इस सदी की शुरुआत के साथ आए टीवी धारावाहिकों को। किसी सामाजिक
या मानवीय मसले को उठाने और वास्तविक जीवन को प्रतिबिंबित करने के बजाए संपन्न
घरों की सदा सजी-धजी सास-बहुओं के अतिरेकपूर्ण षड़यंत्रों को अपने केंद्र में रखने
वाले “डेली सोप” हमारे
जीवन का हिस्सा बन गए। फिर आए वास्तविकता का दम भरने वाले कथित “रिएलिटी शोज़”, जिनकी पटकथा में क्षुद्र वृत्तियों को
बहलाने का सामान सुनिश्चित किया जाता। यहाँ तक कि समाचारों का प्रसारण भी कब
एक्शन-इमोशन से भरपूर मसाला फिल्म का रूप ले गया, हमें एहसास नहीं हुआ। हम बस, चाव
से सब देखते और स्वीकार करते चले गए।
कुल मिलाकर हुआ यह कि ठहराव औऱ गंभीर चिंतन-मनन से हमने मुँह मोड़ लिया। बात-बेबात
हर चीज़ में सतहीपन, दिखावे और अति नाटकीयता को हमने स्वीकृति दे दी और इसी में
जीने लगे। रही-सही कसर सोशल मीडिया ने आकर पूरी कर दी। हरदम नया कौतुहल, नया फसाद,
नया हंगामा, नया नाटक हमारे लिए ज़रूरी हो गया। इनके बिना जीवन बेस्वाद लगने लगा।
बस, हमारे इसी स्वाद के अनुरूप बाज़ार हमें माल परोस रहा है… राजनीति का बाज़ार
भी।
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