Skip to main content

बुद्धू बक्से पर “प्रीतम” का एनकाउंटर!



दूरदर्शन के स्वर्णिम युग में उस पर देखी गई फिल्मों की स्मृतियों के साथ ही नत्थी हैं उनके साथ हुए एनकाउंटरों की भी यादें…।




पिक्चर या मूवी या फिल्म को आधिकारिक भाषा में फीचर फिल्म कहा जाता है, यह हमारी पीढ़ी को दूरदर्शन ने सिखाया। जिस दौर में टीवी के नाम पर देश में दूरदर्शन के रूप में एक ही विकल्प था, तब इस पर प्रसारित होने वाली फिल्में सबसे बड़ा आकर्षण हुआ करती थीं। मगर दूरदर्शन ठहरा सरकारी महकमा, सो फिल्मी मनोरंजन की परोसगारी में भी अक्सर सरकारीपन झलक जाता था। अव्वल तो इस पर फिल्मों को हमेशा फीचर फिल्म कहकर संबोधित किया जाता था। फिर यह भी था कि ताज़ा-ताज़ा बनकर निकली फिल्म को थिएटर में प्रदर्शन से पहले एक बार सेंसर बोर्ड की कैंची से होकर गुज़रना पड़ता था लेकिन दूरदर्शन पर हर प्रदर्शन से पहले उसे खुद को मंडी हाउस के आकाओं की कैंची के हवाले करना होता था। … और वहाँ से वह किस रूप में निकलकर दर्शकों तक पहुँचती, यह बहुत कुछ तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री और दूरदर्शनी बाबुओं की सनक पर निर्भर करता था। इसका नतीजा कई बार हास्यास्पद और कभी-कभी हादसास्पदहो जाता था।
एक बार दूरदर्शन पर खून भरी माँग का प्रसारण हुआ। फिल्म में रेखा, कबीर बेदी वगैरह के अलावा शत्रुघ्न सिन्हा की भी भूमिका थी। मगर उस समय देश में चुनाव हो रहे थे और शत्रु भैया अभिनेता के अलावा नेता भी थे। मतदाता प्रभावित न हो जाएँ, इसलिए कुछ ऐसा नियम था कि चुनाव के वक्त राजनीति में सक्रिय कलाकारों की फिल्में या गाने डीडी पर न दिखाए जाएँ। इसके बावजूद खून भरी माँग का प्रसारण हुआ, बस यह सुनिश्चित कर लिया गया कि पर्दे पर शत्रुघ्न सिन्हा नज़र न आएँ। उनके सीन काट दिए गए और जहाँ काटना संभव नहीं था, वहाँ सिर्फ उनके डायलॉग सुनाए गए जबकि पर्दे पर उसी फिल्म के कोई और शॉट चला दिए गए। जी, डीडी ऐसा गुल खिला सकता था और उसने खिलाया भी!
डीडी का एक फायदा यह था कि अक्सर इस पर ऐसी फिल्में भी देखने को मिल जाती थीं, जिनका नाम भी न सुना होता था लेकिन जो बढ़िया निकल जाती थीं। ऐसी ही एक फिल्म थी बलराज साहनी व निरुपा रॉय अभिनीत गरम कोट। छोटी-सी, प्यारी फिल्म। सीधी-सरल कहानी और एक भी गीत नहीं। बरसों मैं इसी भ्रम में रहा कि बी आर चोपड़ा की कानून की भाँति गरम कोट भी गीत रहित फिल्म थी। बहुत बाद में यह राज़ खुला कि गरम कोट में पूरे चार गाने थे, जो प्रसारण वाले दिन डीडी के एनकाउंटर के शिकार हो गए थे!
ऐसे एनकाउंटर काफी आम थे। कभी-कभी तो इनकी वजह से पूरी फिल्म ही लहुलुहान हो जाती थी। सुभाष घई की सौदागर थिएटर में देखी थी। अच्छी लगी थी, सो कुछ साल बाद जब डीडी पर आई, तो हम फिर इसे देखने बैठ गए। मन में आशंका थी कि फिल्म की लंबाई ज़्यादा है, कहीं डीडी की कैंची न चल जाए। मगर फिल्म ठीकठाक चल रही थी। फिर इंटरवल से पहले वाला टाइटल सॉन्ग आधा काटकर दिखाया गया और फिर…! और फिर डीडी की कैंची बेलगाम, पगलाए घोड़े की मानिंद दौड़ पड़ी। फिल्म का इंटरवल के बाद वाला डेढ़-एक घंटे का भाग मात्र आधे घंटे में समेट दिया गया। कहानी और कंटिन्युटी गई तेल लेने! जो पहली बार सौदागर देख रहे थे, उन बेचारों को संपट ही नहीं बैठी होगी कि पर्दे पर यह चल क्या रहा है! उनकी हालत जाने भी दो यारों के धृतराष्ट्र जैसी रही होगी जो यही पूछता रह गया कि ये सब क्या हो रहा है?
नासिर हुसैन की यादों की बारात जब थिएटर में रिलीज़ हुई थी, तो नहीं देख पाए थे मगर इसके गाने खूब सुने थे। डीडी पर आई, तो देखने बैठ गए। तीन भाइयों के बचपन में बिछड़ने, बड़ा होकर मिलने और अपने मम्मी-पप्पा के खून का बदला लेने की कहानी थी। हीरोइन का काम बस, हीरोइन होना था और यह काम ज़ीनत अमान ने बखूबी अंजाम दिया था। पैसा वसूल मनोरंजन करते हुए फिल्म समाप्त हुई। दि एंड के वक्त ज़ीनत अमान दौड़ते हुए आकर विजय अरोड़ा के गले लग गई और… और नीतू सिंह आकर तारिक के गले लग गई! आंय? नीतू सिंह? यह कहाँ से आ टपकी? फिल्म में तो यह कहीं नहीं दिखी थी! बाद में पता चला कि फिल्म में नीतू सिंह की भी छोटी-सी भूमिका थी और उन पर एक सुपरहिट गाना लेकर हम दीवाना दिल भी फिल्माया गया था। डीडी ने उनके पूरे रोल पर ही कैंची चला दी थी, जबकि न तो उस वक्त कोई चुनाव थे और न ही नीतू राजनीति में थीं। ऐसा क्यों किया गया, पता नहीं। शायद फिल्म की लंबाई ज़्यादा होने की वजह से या फिर शायद लेकर हम दीवाना दिल में नीतू की ड्रेस की लंबाई कम होने की वजह से…?
गुलज़ार की अंगूर थिएटर में देखी थी। इसे आज देखो तो एक-एक दृश्य मास्टरपीस लगता है। उस समय बचपना था, सो देवेन वर्मा पर फिल्माया गया गाना प्रीतम आन मिलो फिल्म की हायलाइट लगा था। कुछ साल बाद जब यह फिल्म डीडी पर आई, तो इसे और खासतौर से प्रीतम आन मिलो को देखने की उत्सुकता थी। फिल्म शुरू हुई। पहला गाना वादा निभाने की रात आई है अपने सही ठिकाने पर आया। दूसरा गाना रोज़-रोज़ डाली-डाली भी सही-सलामत आकर गया। अब इंतज़ार था प्रीतम आन मिलो का। जब तय जगह पर गाना नहीं आया, तो लगा कि शायद अपने को गलत याद था, गाना थोड़ा बाद में आएगा। मगर फिल्म समाप्त हो गई, प्रीतम नहीं आए। तब एहसास हुआ कि ईडियट बॉक्स को संचालित करने वाले नहीं, इसे देखने वाले ही अंततः ईडियट साबित होते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

टेम्पो के भी एक ज़माना था, साहब!

अजीबो-गरीब आकार-प्रकार वाला टेम्पो अपने आप में सड़कों पर दौड़ता एक अनूठा प्राणी नज़र आता था। किसी को इसका डील-डौल भैंस जैसा दिखता, तो किसी को इसके नाक-नक्श शूकर जैसे। जाकि रही भावना जैसी…।   चुनावी विमर्श में मंगलसूत्र, भैंस आदि के बाद टेम्पो का भी प्रवेश हो गया तो यादों के किवाड़ खुल गए। छोटे-मझौले शहरों में रहने वाले मेरी पीढ़ी के मध्यमवर्गीय लोगों की कई स्मृतियां जुड़ी हैं टेम्पो के साथ। हमारे लिए टेम्पो का अर्थ तीन पहियों वाला वह पुराना काला - पीला वाहन ही है, कुछ और नहीं। कह सकते हैं कि टेम्पो हमारे जीवन का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था। आज के विपरीत, तब घर-घर में फोर-व्हीलर नहीं हुआ करता था और न ही घर में दो-तीन टू-व्हीलर हुआ करते थे। हरदम ऑटोरिक्शा से सफर करना जेब पर भारी पड़ता था। तो टेम्पो ही आवागमन का प्रमुख साधन हुआ करता था। हमने भी टेम्पो में खूब सवारी की है। इंदौर में हमारे घर से सबसे करीबी टेम्पो स्टैंड एमवाय हॉस्पिटल के सामने था। शहर में कहीं भी जाना हो, पहले घर से एमवायएच तक पंद्रह मिनिट की पदयात्रा की जाती थी, फिर टेम्पो पकड़कर गंतव्य की ओर प्रस्थान किया जाता थ...

आओ, दीवारों का उत्सव करें

आओ, दीवारों का उत्सव करें  विद्वेष के विषकण से सींचकर धरती पर  दीवारों की फसल लहलहा दें तुम अपनी पहचान का परचम उठाओ, हम अपनी पहचान का तमगा धारें  थामकर अपनी संकुचित पहचानों को, संकीर्णताओं में ही आओ, सुख तलाशें  एका हमें दूषित करता है, चलो आपस में बंट जाएं, छंट जाएं अपनों - परायों के भेद को लेकर  न रहे कोई शक - शुबहा, कोई भ्रम - विभ्रम न छूने पाए हमारी छाया तुम्हें  न स्पर्श हो तुम्हारे वजूद का हमें न तुम्हारे सुख - दुख के छींटे पड़ें हम पर  न हमारी पीड़ा - आनंद का वास्ता हो तुमसे भूल से भी न बन बैठे कोई रिश्ता तुममें, हममें  महफूज़ रहें हम दीवारों के इस ओर, उस ओर तुम अपने खांचों में खुश रहो, हम अपने दड़बों में रहें प्रसन्न इस साझी धरती की छाती पर चलो, दीवारों की लकीरें खींच दें इंसानियत के असहनीय बोझ को भी इन्हीं दीवारों में कहीं चुनवा दें। आओ, दीवारों का उत्सव करें…। (प्रतीकात्मक चित्र इंटरनेट से)

एक रुपए में अपन भी बन गए थे “सदस्य”

उसने पास आकर पूछा, “क्या तुम मेंबर बनना चाहोगे? बस एक रुपया देना होगा।” इन दिनों एक सदस्यता अभियान की चर्चा है, तो अपने को भी बरसों पुराना एक सदस्यता अभियान याद हो आया। बात तब की है जब अपन नए-नए कॉलेज जाने लगे थे। बिल्कुल कोरे-कच्चे, किताबों और कल्पनाओं की दुनिया से बाहर की “असली” दुनिया से लगभग बेखबर। एक दिन अपनी ही क्लास का, छोटा-सा चश्मा लगाने वाला, छोटे-से कद का लड़का एक-एक सहपाठी के पास जाकर कोई टास्क आगे बढ़ाता-सा दिखाई दिया। पता चला कि वह छात्र संगठन के लिए सदस्य बना रहा है। अपनी भी बारी आई। उसने पास आकर पूछा, “क्या तुम मेंबर बनना चाहोगे? बस एक रुपया देना होगा।” संगठन का नाम भी बताया मगर क्या है कि अपने को दूर-दूर तक छात्र संगठनों के नाम से मतलब नहीं था, सो उसने जो नाम बताया, वह भेजे में दर्ज होने से पहले ही फिसलकर बाहर हो गया। अपन ने तो बस इतना पूछा कि इससे क्या होगा…। इस पर उसने बचकाना-सा, रटा-रटाया जवाब दिया कि इससे ये होगा कि तुम्हारा कोई काम हो तो आसानी से हो जाएगा। तब  “ना”  कहना अपने को आता नहीं था। टालना या बहाने बनाना तो बिल्कुल भी नहीं। सो, चुपचाप जेब से एक रु...