बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते।
चौपट राजा ने रोज की तरह खिड़की से बाहर झाँका और रोज ही की तरह गुस्से में
तमतमाते हुए खिड़की बंद कर दी। एक महीने से ऊपर हो चुका था, वह अपने शाही बाग में
टहल नहीं सका था। टहलने जाता भी कैसे? बाग
पर तो प्रजा ने कब्जा जमा रखा था। पूरा बाग प्रजा से खचाखच भरा हुआ था। जिस बाग
में सुबह-सबेरे रंग-बिरंगे फूलों के दर्शन कर राजा को अच्छे दिन की प्रतीति होती
थी, वहाँ अब बागी प्रजा मुँह चिढ़ाती दिखती थी। यूँ बहाना तो था कोई कागज-पत्तर
दिखाने का चौपटपने में दिया गया राजा का एक फरमान मगर सच तो यह था कि प्रजा अब इस चौपटापे
से आज़िज़ आ गई थी। सो बस, वह उठकर शाही बाग में चली आई और धप्प से बैठ गई। कागज-पत्तर
क्या दिखाना, लो हमें ही देख लो! राजा सन्न रह गया। प्रजा से ऐसी प्रतिक्रिया की उसे कतई
उम्मीद नहीं थी। अब बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन
चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते। वह चाहता, तो अपनी सेना
भेजकर बाग का जलियांवाला बाग कर सकता था लेकिन इससे तो उसके दुश्मनों के इस आरोप
को ही बल मिलता कि राजा दुष्ट है, निर्मम है…।
पहले तो चौपट राजा ने अपने परम् विश्वस्नीय शाही वज़ीर की मदद से कोशिश की कि
प्रजा के यूँ उसे मुँह चिढ़ाने की खबर बाहर किसी तक न पहुँचने पाए। राज्य के तमाम हरकारों
को ताकीद की गई कि इस बारे में किसी को कुछ नहीं बताना है। मगर इश्क और मुश्क की
तरह ऐसी खबरें भी छिपती हैं भला? ऊँट का पहाड़ के नीचे आना सदा आम
जनता को रोमांचित करता है। और फिर यदि ऊँट राजसी हो, तब तो यह रोमांच और भी बढ़
जाता है। सो लोगों को खबर हुई और वे दूर-पास से आने लगे, यह देखने कि कैसे राजा को
उसके ही बाग में मुँह चिढ़ाया जा रहा है।
अब चौपट राजा और शाही वज़ीर ने सोचा कि जब पूरे राज्य को इस गुस्ताखी की खबर
हो ही गई है, तो क्यों न बाग में बैठे लोगों को लांछित कर सबकी नज़रों में गिरा
दिया जाए। उन्होंने अपने शिगूफा शूरवीरों के माध्यम से यह प्रचार करवाना शुरू किया
कि देखो बाग में बैठे लोग कैसे मुफ्तखोर हैं, कुछ काम-धाम करने के बजाए फोकट की
रोटियाँ तोड़ रहे हैं। मगर पलटकर रियाया का सवाल आया कि राजाजी, काम-धाम,
रोजी-रोजगार है कहाँ?
इसके बाद राजा ने अपना परम प्रिय अस्त्र निकालते हुए यह कहलवाना शुरू किया कि बाग
में बैठे लोग गद्दार हैं। मगर रियाया की ओर से प्रश्न किया गया कि ये गद्दार हैं,
तो आपको इन्हें हिरासत में लेने से किसने रोका है? तब प्यादों को आगे कर
कहलवाया गया कि दरअसल ये विदेशी घुसपैठिए ही हैं, जो आकर शाही बाग में बैठ गए हैं।
इस पर रियाया ने फिर कहा कि यह तो राष्ट्र के लिए शर्म की बात है कि विदेशी
घुसपैठिए राजाजी के बाग में दुशाला ओढ़े बैठे हैं और राजाजी बस ज़ुबान चला रहे
हैं।
आखिर चौपट राजा
ने एक बार फिर शाही वज़ीर को बुला भेजा और उसके आते ही बोल पड़ा, “यह सब आखिर कब तक चलेगा? हमें हमारा बाग क्या अब कभी नहीं मिलेगा? शाह-हीन बाग अच्छा नहीं लगता और बाग-मुक्त राजा निरा रंक लगता है। हमारी छाती
छप्पन की छत्तीस हो रही है और तुमसे कुछ करते नहीं बन रहा!”
विचलित तो वज़ीर भी था मगर उसने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में राजा को धीरज बंधाते
हुए कहा, “महाराज, समय बड़ा बलवान होता है, इन बाग वाले बागियों से उसे ही निपटने दीजिए।
आप तो बस, इनकी उपेक्षा कीजिए।”
“क्या? और लोगों को हम पर हँसने
दें?”
“नहीं महाराज। हम हमारे
तमाम शिगूफा शूरवीरों, प्रचारक प्यादों और सनसनीबाज़ संदेशवाहकों से यह चर्चा आम
करवा देंगे कि दिन में बीस-बीस घंटे राष्ट्र सेवा में डूबे रहने वाले कर्मठ नरेश
को वैसे भी बाग-बगीचों में जाने की कहाँ फुर्सत? सो
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन बाग में आ बैठा है और कौन नहीं। महाराजजी कृपालु
हैं कि कोई भी चला आकर शाही बाग में बैठ सकता है।”
चौपट राजा को फिलहाल इस उपाय को मानने के सिवा कोई चारा नज़र नहीं आ रहा था, सो
थोड़े अनमने ढंग से ही सही उसने कह दिया, “तथास्तु।”
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