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“ब्रेडवाला…”



जब साइकल पर सवार हो, घर की देहरी पर आती थी ताज़ा ब्रेड… साथ ही और भी बहुत कुछ…।

उन दिनों ब्रेड का चलन उतना नहीं था, जितना अब है। आज की तरह हर गली-नुक्कड़ की दुकानों पर यह मिलती भी नहीं थी। तब हमारे ब्रेड-प्रेमी घर में इसकी आपूर्ति करते थे ब्रेड वाले बाबा। बाबा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बरसों तक उनसे ब्रेड खरीदने के बावजूद कभी उनका नाम नहीं जाना। सौम्य स्वर में ब्रेडवालाकी आवाज़ लगाते हुए सुबह-शाम वे साइकल पर कॉलोनी से निकलते। बाद में केवल शाम को उनका फेरा लगने लगा। ईद, मोहर्रम के अलावा शायद ही कभी वे नागा करते।
सफेद, हल्के घुंघराले बाल, सफा-चट चेहरे पर तजुर्बे से मथकर निकली धीर-गंभीरता, ढीली-ढाली कमाज़ और पायजामा उनकी पहचान थे। … और उनकी पहचान थी आला दर्जे की नर्म, मुलायम ब्रेड जिसे वे साइकल की पिछली सीट पर बंधी पेटी में लेकर चलते थे। बड़ी-छोटी दो साइज़ की साबुत ब्रेड उनकी पेटी में भरी होती थी। ग्राहक की माँग अनुसार उसकी पतली या मोटी स्लाइस करने के लिए वे पेटी में से ही एक बड़ी-सी छुरी निकालते और ब्रेड को पेटी पर रखकर, सधे हुए हाथों से फटाफट एक समान स्लाइस कर पारदर्शी पॉलिथीन की थैली में रखकर, उस पर गठान बाँधकर पेश कर देते। कभी ताज़ातरीन ब्रेड गर्म होती, तो पॉलिथीन का मुँह खुला रखते और हमें भी हिदायत देते कि अभी इसे खुला ही रखना, नहीं तो भाप जम जाएगी।
मगर बाबा पिटारा भर ब्रेड लेकर ही नहीं आते थे। उनकी साइकल के दोनों हैंडलों से दो डलियाएँ टंगी होती थीं और हम बच्चों के आकर्षण का केंद्र ये डलियाएँ ही होती थीं। इनमें होते थे बन, क्रीमरोल, केक और समोसे। बेक्ड समोसे आजकल बेहद आम हैं मगर इनसे हमारा पहला परिचय ब्रेडवाले बाबा के ज़रिये ही हुआ था। उनके केक साधारण कप केक ही हुआ करते थे लेकिन तब, जबकि यत्र-तत्र-सर्वत्र बेकरियाँ और केक शॉप्स नहीं खुली थीं, ये साधारण केक खाना भी किसी दावत से कम न था। उनके बन भी ब्रेड की ही तरह ताज़ा, मुलायम होते थे। मगर ब्रेड के इतर हमारे यहाँ जिस आइटम की सबसे ज़्यादा माँग होती थी, वे थे क्रीमरोल। उम्दा, करारे आवरण में स्वादिष्ट, मीठी क्रीम एक अलग ही अनुभव कराती थी। हर साल गुड फ्रायडे से एक-दो दिन पहले बाबा की डलिया में एक और खास आइटम होता- हॉट क्रॉस बन। मुनक्का जड़े इस मीठे बन के ऊपर क्रॉस की आकृति बनी होती। इन बन्स का हमें साल भर इंतज़ार रहता।
हमारे परिवार की तरह बाबा भी मूल रूप से इंदौर के पास स्थित सैन्य छावनी महू के थे, सो कभी-कभी पापा, मम्मी या नानी के साथ महू और वहाँ के पुराने बाशिंदों की चर्चा करने लग जाते। बरस बीतते गए और उम्र की परछाइयाँ बाबा को घेरने लगीं। अगली पीढ़ी को तैयार करना अब ज़रूरी हो चला था। बाबा के साथ उनका बेटा भी आने लगा। दो साइकलों पर पिता-पुत्र आवाज़ लगाते निकलते। धीरे-धीरे बाबा रिटायरमेंट की ओर बढ़ रहे थे। किसी-किसी दिन उनका बेटा अकेला ही आता। फिर बाबा ने स्थायी रूप से निवृत्ति ले ली औऱ उनका बेटा ही हमारा ब्रेडवाला बन गया।
मगर यह सिलसिला कुछ ही समय तक चला। नौजवान ब्रेडवाले का फेरा अनियमित रहने लगा औऱ अंततः थम गया। तब तक अलग-अलग ब्राण्डों की ब्रेड आस-पड़ोस की दुकानों पर मिलने लगी थी और उसकी गुणवत्ता भी पहले दुकानों पर मिलने वाली ब्रेड से कहीं बेहतर हो चुकी थी। ब्रेडवाले के फेरे की राह तकने की अब ज़रूरत नहीं रह गई थी। सो ब्रेडवाले ने भी दूसरी राह पकड़ ली। सुनने में आया कि उसकी किसी खाड़ी देश में नौकरी लग गई है। अब ब्रेड, बन, क्रीमरोल आदि दुकानों पर आसानी से मिल जाते हैं लेकिन ब्रेडवाले के रूप में एक किरदार जीवन से हमेशा के लिए रुख्सत ले गया।

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