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Showing posts from January, 2020

चौपट राजा के शाही बाग में घुसपैठिए!

बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते। चौपट राजा ने रोज की तरह खिड़की से बाहर झाँका और रोज ही की तरह गुस्से में तमतमाते हुए खिड़की बंद कर दी। एक महीने से ऊपर हो चुका था, वह अपने शाही बाग में टहल नहीं सका था। टहलने जाता भी कैसे ? बाग पर तो प्रजा ने कब्जा जमा रखा था। पूरा बाग प्रजा से खचाखच भरा हुआ था। जिस बाग में सुबह-सबेरे रंग-बिरंगे फूलों के दर्शन कर राजा को अच्छे दिन की प्रतीति होती थी, वहाँ अब बागी प्रजा मुँह चिढ़ाती दिखती थी। यूँ बहाना तो था कोई कागज-पत्तर दिखाने का चौपटपने में दिया गया राजा का एक फरमान मगर सच तो यह था कि प्रजा अब इस चौपटापे से आज़िज़ आ गई थी। सो बस, वह उठकर शाही बाग में चली आई और धप्प से बैठ गई। कागज-पत्तर क्या दिखाना, लो हमें ही देख लो ! राजा सन्न रह गया। प्रजा से ऐसी प्रतिक्रिया की उसे कतई उम्मीद नहीं थी। अब बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते। वह चाहता, तो अपनी सेना भेजकर बाग का जलियांवाला बाग कर सकता था लेकिन इससे तो उसके दुश्मनों के इस आरोप को ही बल मिलत...

A glass of froth

How would you like to have some froth for a winter breakfast? Winter in most Parsi households is incomplete without at least a couple of mornings devoted to “Doodh na Puff”. It is one of the oddest and yet simplest breakfast dishes you will find anywhere in the world. In fact, some people might even refuse to accept it as a dish! Milk is sweetened and boiled to reduce it. Then, it is poured in a pot or pan which is covered, not with a lid but a thin muslin cloth. This is then left out in the open overnight, preferably on the terrace. These days, those living in metros make do with putting it away in the refrigerator, though it’s not quite the same as the traditional way. Next morning, before the sun comes up, this milk is taken indoors. A little Rose or Vanilla essence might be added to it (it’s optional). And then begins the actual process of making the puff. The milk is beaten with an egg beater or hand blender so that froth starts forming. This froth is carefully coll...

“ब्रेडवाला…”

जब साइकल पर सवार हो, घर की देहरी पर आती थी ताज़ा ब्रेड… साथ ही और भी बहुत कुछ…। उन दिनों ब्रेड का चलन उतना नहीं था, जितना अब है। आज की तरह हर गली-नुक्कड़ की दुकानों पर यह मिलती भी नहीं थी। तब हमारे ब्रेड-प्रेमी घर में इसकी आपूर्ति करते थे ब्रेड वाले बाबा। बाबा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि बरसों तक उनसे ब्रेड खरीदने के बावजूद कभी उनका नाम नहीं जाना। सौम्य स्वर में “ ब्रेडवाला … ” की आवाज़ लगाते हुए सुबह-शाम वे साइकल पर कॉलोनी से निकलते। बाद में केवल शाम को उनका फेरा लगने लगा। ईद, मोहर्रम के अलावा शायद ही कभी वे नागा करते। सफेद, हल्के घुंघराले बाल, सफा-चट चेहरे पर तजुर्बे से मथकर निकली धीर-गंभीरता, ढीली-ढाली कमाज़ और पायजामा उनकी पहचान थे। … और उनकी पहचान थी आला दर्जे की नर्म, मुलायम ब्रेड जिसे वे साइकल की पिछली सीट पर बंधी पेटी में लेकर चलते थे। बड़ी-छोटी दो साइज़ की साबुत ब्रेड उनकी पेटी में भरी होती थी। ग्राहक की माँग अनुसार उसकी पतली या मोटी स्लाइस करने के लिए वे पेटी में से ही एक बड़ी-सी छुरी निकालते और ब्रेड को पेटी पर रखकर, सधे हुए हाथों से फटाफट एक समान स्लाइस कर पारदर्श...