बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते। चौपट राजा ने रोज की तरह खिड़की से बाहर झाँका और रोज ही की तरह गुस्से में तमतमाते हुए खिड़की बंद कर दी। एक महीने से ऊपर हो चुका था, वह अपने शाही बाग में टहल नहीं सका था। टहलने जाता भी कैसे ? बाग पर तो प्रजा ने कब्जा जमा रखा था। पूरा बाग प्रजा से खचाखच भरा हुआ था। जिस बाग में सुबह-सबेरे रंग-बिरंगे फूलों के दर्शन कर राजा को अच्छे दिन की प्रतीति होती थी, वहाँ अब बागी प्रजा मुँह चिढ़ाती दिखती थी। यूँ बहाना तो था कोई कागज-पत्तर दिखाने का चौपटपने में दिया गया राजा का एक फरमान मगर सच तो यह था कि प्रजा अब इस चौपटापे से आज़िज़ आ गई थी। सो बस, वह उठकर शाही बाग में चली आई और धप्प से बैठ गई। कागज-पत्तर क्या दिखाना, लो हमें ही देख लो ! राजा सन्न रह गया। प्रजा से ऐसी प्रतिक्रिया की उसे कतई उम्मीद नहीं थी। अब बाग में बैठी प्रजा वह हड्डी बन चुकी थी, जो न राजा से निगलते बन रही थी और न ही उगलते। वह चाहता, तो अपनी सेना भेजकर बाग का जलियांवाला बाग कर सकता था लेकिन इससे तो उसके दुश्मनों के इस आरोप को ही बल मिलत...