तब सिर्फ फिल्म नहीं देखी जाती थी, उसके साथ कई अनुभव जिए जाते थे। ऐसे अनुभव, जो स्मृति पटल पर दर्ज होकर हटने का नाम नहीं लेते…।
पहले टीवी और फिर इंटरनेट ने फिल्म देखने का “साधारणीकरण’’ कर दिया। अब शहर के बेहतरीन मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखना भी कोई बहुत खास बात नहीं रह गई क्योंकि आप कभी भी, कहीं भी फिल्म देख सकते हैं और देख भी लेते हैं। एक समय सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखना एक इवेंट हुआ करता था। और इस इवेंट से कुछ यादें अलग से जुड़ जाती थीं। मुझे सिनेमा हॉल में देखी हुई लगभग हर फिल्म के साथ यह भी याद है कि वह किस थिएटर में देखी थी। साथ ही, उस फिल्म को देखने से जुड़ी कुछ बिल्कुल असंबद्ध-सी बातें भी न जाने क्यों और कैसे स्मृति पटल पर अंकित हैं। नितांत सामान्य बातें, जिन्हें याद रखने योग्य भी नहीं कहा जा सकता लेकिन “फिल्म देखने’’ के अनुभव के साथ ये भी नत्थी हो गई हैं।
मसलन यह कि इंदौर के एलोरा टॉकीज़ में “अर्जुन पंडित’’ (1976) देखते वक्त मम्मी को चूहा काट गया था या यह कि इंदौर के ही अलका टॉकीज़ में “हीरालाल पन्नालाल’’ (1978) देखने गए तो हॉल के भीतर की ऊँची-ऊँची सीढ़ियों पर बुआ गिर पड़ी थीं। यह भी कि बरसते पानी में छाता ओढ़कर “कुर्बानी’’ (1980) देखने मधुमिलन टॉकीज़ गए थे और फिल्म के दौरान जब छत से पानी टपकना शुरू हुआ तो मन में खयाल आया था कि क्या यहाँ भी छाता खोलकर बैठना पड़ेगा! खैर, इसकी नौबत नहीं आई। और हाँ, महू के मोतीमहल टॉकीज़ में “जय संतोषी माँ’’ देखते वक्त, खटमलों की उपस्थिति के बावजूद हॉल में माहौल श्रद्धा भाव से ओतप्रोत था…।
इंदौर में बाबा आदम के ज़माने का एक महाराजा टॉकीज़ हुआ करता था। उसमें “धरम-वीर’’ (1977) देखने गए, तो हॉल का द्वार खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी भीड़ में एक साधु वेशधारी भी नज़र आया। सोचकर बड़ा अजीब लगा कि साधु बाबा भी फिल्म देखते हैं! इसी प्रकार, रतलाम के लोकेंद्र टॉकीज़ में “स्वर्ग-नरक’’ (1978) देखने गए, तो दर्शकों में दो नन्स को देखकर आश्चर्य हुआ। पिताजी मज़ाक में बोल पड़े, “कहीं ये इसे धर्म-अध्यात्म की फिल्म समझकर तो नहीं आ गईं- हैवन एंड हैल!’’
एडवांस बुकिंग में टिकट खरीदकर फिल्म देखने का एक अलग ही आनंद होता था। शो के समय थिएटर जाते हुए यह अनिश्चितता नहीं होती थी कि पता नहीं टिकट मिलेंगे कि नहीं। संडे की सुबह पिताजी के साथ एडवांस बुकिंग में टिकट लेने जाना एक खास अनुभव होता था। एक तो यह कि एक ही दिन में सिनेमाघर तक की दो-दो सैर हो जाती थी। फिर, शाम की भीड़भाड़ और गहमागहमी से हटकर, सुबह के वक्त शांत और काफी हद तक सूने सिनेमाघर का नज़ारा अलग ही होता था। दोपहर या शाम के शो के टिकट सुबह हाथ आ जाने पर एक खास किस्म की रईसी का एहसास होता था। हाँ, यशवंत टॉकीज़ के मामले में रईसी का यह एहसास और बढ़ जाता था। कारण यह कि टॉकीज़ परिसर में एक फिल्म वितरक का दफ्तर था, जिसमें मम्मी की सहेली काम करती थीं। सो सुबह एडवांस बुकिंग के टिकट खरीदने जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। आंटी को फोन पर सूचित कर दिया जाता और वे हमारे लिए टिकट खरीदकर रख लेतीं। शो के समय हम टिकट के लिए लगी कतारों के बीच में से बड़े ठाठ से निकलकर सीधे आंटी के ऑफिस में जाकर बैठते और शो-टाइम का इंतज़ार करते हुए उनसे गपशप का दौर चलता।
टिकटों का ब्लैक में बिकना बहुत आम था। कभी-कभी जब बिना एडवांस बुकिंग में टिकट खरीदे फिल्म देखने पहुँचते, तो इससे दो-चार होना पड़ता। ऐसे ही 1982 में प्रेमसुख टॉकीज़ में “विधाता’’ का ढाई बजे वाला शो देखने पहुँचे, तो टिकट खिड़की पर हाउसफुल की तख्ती लग चुकी थी और बाहर सड़क पर धड़ल्ले से ब्लैक में टिकट बिक रहे थे। इन्हें खरीदने का सवाल ही नहीं उठता था, तो अब क्या किया जाए? मैं तपाक से बोल पड़ा, अलका टॉकीज़ में “ये तो कमाल हो गया’’ लगी है। उसमें कमलहासन का डबल रोल है और शो सवा तीन बजे का है…। जी हाँ, तब यह सब कंठस्थ रहता था कि कौन-से थिएटर में कौन-सी फिल्म लगी है और शो के टाइमिंग्स क्या हैं। तो पिताजी ने भाई को साथ लेकर स्कूटर अलका टॉकीज़ की ओर दौड़ा दी और मम्मी और मैं पैदल ही प्रेमसुख से अलका के लिए चल पड़े। कोई डेढ़-पौने दो किलोमीटर चलकर अलका टॉकीज़ पहुँचे, तब तक पिताजी टिकट खरीद चुके थे और शो शुरू होने में अभी थोड़ा वक्त बाकी था।
किशोरावस्था में मेरी हाइट ज़रा तेज़ी से बढ़ने लगी तो कई लोगों ने इसकी ओर ध्यान दिलाया। मगर अपन वाकई लंबे हो चले हैं, इस बात का पक्का एहसास तब हुआ, जब सिनेमा हॉल में पीछे बैठे दर्शक कंधे पर हाथ रखकर बोलने लगे, “थोड़ा नीचे होकर बैठो, दिख नहीं रहा।” अब तक तो अक्सर मुझे ही कई बार आगे बैठे लंबे दर्शकों के बीच में से जैसे-तैसे फिल्म देखनी पड़ती थी! उधर ग्वालियर के रीगल टॉकीज़ की बालकनी की सबसे पिछली कतार और उसके ठीक पीछे स्थित प्रोजेक्शन रूम के झरोखे की ऊँचाई में ज़्यादा अंतर नहीं था। विज्ञापन या फिल्म के चलते हुए यदि कोई सामान्य कद का दर्शक भी वहाँ खड़ा हो जाता, तो पर्दे पर विज्ञापन या फिल्म के बजाए उसकी परछाई नज़र आती और इधर-उधर से हूटिंग शुरू हो जाती। फिल्म खत्म होने से ठीक पहले जब दर्शक उठकर जाने लगते, तो पर्दे पर परछाइयाँ ही नज़र आतीं, “दि एंड’’ दिखाई नहीं देता, जिससे हम दोनों भाइयों को बहुत कोफ्त होती थी क्योंकि फिल्म देखने का अनुभव तभी मुकम्मल होता था, जब पर्दे पर “दि एंड’’ दिखाई दे।
सारे सिनेमाघरों से हटकर अनुभव था बंबई के ड्राइव-इन थिएटर में “सनम तेरी कसम’’ (1982) देखना। खुले आसमान के नीचे, मौसाजी की कार के बॉनेट पर बैठकर हमने यह फिल्म देखी थी। जब फिल्म खत्म होने को थी, तो एक के बाद एक कई कारें स्टार्ट होने लगीं। मौसाजी भी हमसे बोल पड़े, “चलो चलो, कार में बैठ जाओ। अब निकलेंगे।’’ हमें बड़ा अजीब लगा कि अभी तो आखिरी सीन चल ही रहा है, अभी क्यों चलें! तब मौसी ने समझाया कि जैसे ही शो खत्म होगा, सारी कारें एक साथ निकलने की कोशिश करेंगी और जाम लग जाएगा, इसलिए थोड़ा पहले ही निकलना ठीक है। हम मन मारकर कार में बैठ गए। मगर चलती कार में से गर्दन घुमा-घुमाकर आखिरकार पर्दे पर “दि एंड’’ के दर्शन कर ही लिए…।
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