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Showing posts from November, 2019

बिल्ली, तुम रस्ता न काटा करो!

अनिष्ट का भय किस कदर विवेक को हर लेता है, यह देखने के लिए सड़क पर एक बिल्ली दौड़ा दीजिए…। वह लगातार हॉर्न दिए जा रहा था और आगे निकलने को अधीर हो रहा था। मैं धीरे वाहन चलाने के लिए कुख्यात हूँ, फिर चाहे टू व्हीलर हो या फोर व्हीलर, सो ऐसा मेरे साथ अक्सर होता रहता है। ऐसे में मैं जल्द-से-जल्द साइड देकर पीछे आने वाले को ओवरटेक कर आगे निकलने देता हूँ कि जा भई, तू भी खुश रह और मुझे भी शांति से गाड़ी चलाने दे। मगर उस दिन काफी देर तक ऐसा मौका ही नहीं मिल पा रहा था। कभी वह सामने से आ रही किसी गाड़ी के कारण मुझे ओवरटेक नहीं कर पाता, तो कभी मैं रॉन्ग साइड आ रही किसी गाड़ी के कारण उसे साइड नहीं दे पा रहा था। खैर, आखिरकार मौका मिला, मैंने उसे साइड दी और वह फर्राटे से आपनी कार दौड़ाता हुआ मुझे ओवरटेक कर आगे बढ़ गया। मैंने राहत की सांस ली… मगर यह क्या ! ज़रा-सा आगे जाकर ही वह अचानक रुक गया। गाड़ी से कोई उतरा भी नहीं। मुझे समझ नहीं आया कि जो शख्स एक मिनट पहले तक अपनी मंज़िल पर पहुँचने के लिए बेतरह उतावला हो रहा था, वह यूँ ठिठक क्यों गया। तभी मेरी नज़र उसके ठिठकने की वजह पर पड़ी। एक बिल्ली...

एक फ्लैशबैक एडवांस बुकिंग से “दि एंड’’ तक

तब सिर्फ फिल्म नहीं देखी जाती थी, उसके साथ कई अनुभव जिए जाते थे। ऐसे अनुभव, जो स्मृति पटल पर दर्ज होकर हटने का नाम नहीं लेते…। पहले टीवी और फिर इंटरनेट ने फिल्म देखने का  “ साधारणीकरण ’’  कर दिया। अब शहर के बेहतरीन मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखना भी कोई बहुत खास बात नहीं रह गई क्योंकि आप कभी भी, कहीं भी फिल्म देख सकते हैं और देख भी लेते हैं।  एक समय सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म देखना एक इवेंट हुआ करता था। और इस इवेंट से कुछ यादें अलग से जुड़ जाती थीं। मुझे सिनेमा हॉल में देखी हुई लगभग हर फिल्म के साथ यह भी याद है कि वह किस थिएटर में देखी थी। साथ ही, उस फिल्म को देखने से जुड़ी कुछ बिल्कुल असंबद्ध-सी बातें भी न जाने क्यों और कैसे स्मृति पटल पर अंकित हैं। नितांत सामान्य बातें, जिन्हें याद रखने योग्य भी नहीं कहा जा सकता लेकिन  “ फिल्म देखने ’’  के अनुभव के साथ ये भी नत्थी हो गई हैं। मसलन यह कि इंदौर के एलोरा टॉकीज़ में  “ अर्जुन पंडित ’’ (1976)  देखते वक्त मम्मी को चूहा काट गया था या यह कि इंदौर के ही अलका टॉकीज़ में  “ हीरालाल पन्नालाल ’’ ...