जब पहले-पहल
वाहन चलाना शुरू किया, तभी से यह नसीहत गांठ बाँध ली थी कि अजनबियों को लिफ्ट नहीं
देना, ज़माना खराब है…। तब से अब तक कोई दो-चार मौके ही ऐसे आए हैं, जब अनजान
लोगों को लिफ्ट न देने का नियम तोड़ा। ये ऐसे मौके रहे हैं, जिनके बारे में अब
सोचने पर हँसी आए बिना नहीं रहती।
पहला किस्सा तब
का है, जब वाहन चलाना शुरू किए ज़्यादा समय नहीं हुआ था। एक सहकर्मी-मित्र की शादी
थी, शहर के सुदामानगर इलाके में। शहर का वह हिस्सा तब मेरे लिए नितांत अजनबी था,
सो दूल्हे राजा से निमंत्रण के साथ ही विवाह स्थल तक पहुँचने के दिशा-निर्देश भी
प्राप्त कर लिए। मुझे बताया गया कि सेठी गेट नामक प्रसिद्ध लैंडमार्क है, जो मुझे
मिल ही जाएगा। वहाँ किसी से भी फलाँ मंदिर (मंदिर का नाम अब मैं
भूल रहा हूँ) के बारे में पूछूँ, तो वह बता देगा। बस, उस मंदिर के सामने स्थित बगीचे में
ही आयोजन है…।
शादी के दिन
मैं अपनी लूना पर निकल पड़ा। काफी ढूँढने पर भी सेठी गेट नहीं मिला। आखिर एक जगह रुककर
पूछा, तो बताया गया कि सेठी गेट तो पीछे छूट गया। मंदिर का पता पूछा और बताए
अनुसार आगे बढ़ने लगा। इस प्रकार पूछते-पाछते मेन रोड छोड़ भीतरी गलियों की भूल-भुलैयां
में जा पहुँचा। अब अंधेरा घिरने लगा था और मंदिर का कहीं अता-पता नहीं था। फिर एक
व्यक्ति से पूछा, तो पहले तो उसने दायें-बायें समझाया, फिर बोल पड़ा, “मैं भी उसी तरफ जा रहा हूँ, पीछे बैठ जाऊँ? रास्ता बताता चलूँगा।“ हाँ कहने के
सिवा कोई विकल्प न दिखा, सो उसे बिठा लिया। अब वह इधर से सीधे हाथ, उधर से उल्टे
हाथ करता हुआ मुझे हाँके जा रहा था। शॉर्ट कट का कहकर सड़क के बजाए खाली प्लॉटों
के रास्ते ले जाने लगा। अचानक मन में एक भय उठा। अनजान इलाका, खाली प्लॉटों की वजह
से काफी हद तक सुनसान भी। तेज़ी से घिरता अंधेरा और पिछली सीट पर बैठा एक अनजान शख्स।
माना कि किसी के चेहरे या कपड़ों पर लिखा नहीं होता कि वह शरीफ है या बदमाश, मगर
इन महाशय की शक्ल, हाव-भाव और पहनावा ज़रा भी आश्वस्त करने वाले नहीं थे। बस, सारी
झिझक और शिष्टाचार पार्श्व में चला गया और आत्मरक्षा का नैसर्गिक गुण हावी हो गया।
मैंने ब्रेक लगाई और आवाज़ कड़ी करते हुए (जोकि कम से कम उस समय तो मेरे लिए एक नया ही
अनुभव था) बोल पड़ा, “तुमने तो कहा था पास ही में है, फिर इतनी देर से कहाँ भटका रहे हो? ठीक-ठीक बता दो, मैं खुद चला जाऊँगा।“
अब तक पूरे
आत्मविश्वास से मेरा मार्गदर्शन कर रहे महानुभाव का स्वर अचानक बदल गया। वह बोल
पड़ा, “ठीक है ठीक है, आप कहते हो तो मैं उतर जाता हूँ“ और लूना से उतर पड़ा। फिर बताया
कि आगे से सीधे हाथ पर मुड़ जाना, मंदिर दिख जाएगा। मैंने उसी स्वर में “ठीक है“ कहा और उसे
वहीं छोड़ते हुए लूना दौड़ा दी। कुछ ही पल में मंदिर सामने था। उसने रास्ता तो सही
बताया था। आज भी सोचता हूँ कि क्या मैंने बेकार ही उस पर शक किया था या फिर मेरे
तेवर कड़े न करने पर कहानी कुछ और होती!
दूसरा किस्सा
इसके कुछ ही समय बाद का है। दफ्तर जा रहा था, पलासिया के ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ा
था। एक महाशय ने आकर पूछा, “देवास नाका जाओगे क्या?“ मैंने कहा नहीं, “प्रेस कॉम्प्लेक्स तक जा रहा हूँ।“ इस पर वह
बोला, “ठीक है, मुझे प्रेस कॉम्प्लेक्स तक छोड़ दोगे? “ और
मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही धप्प से पिछली सीट पर बैठ गया। उसकी इस
हिमाकत पर गुस्सा तो आया मगर तभी सिग्नल चालू हो गया, सो लूना बढ़ा ली। सोचा,
गड़बड़ आदमी भी हुआ तो दिन-दहाड़े व्यस्त सड़क पर क्या कर लेगा! जब हम इंडोटेल होटल (अब सीएचएल हॉस्पिटल) के सामने पहुँचे, तो जाम की वजह से रुकना पड़ा।
पीछे बैठे महाशय की टाँगें ज़रूरत से ज़्यादा लंबी थीं, जिस कारण सीट पर बैठकर उनके
घुटने काफी बाहर की ओर निकल रहे थे। तभी पास से निकल रहे एक लोडिंग रिक्शा ने उनका
घुटना हल्का-सा रगड़ दिया। जनाब इंदौरी स्टाइल में उतर पड़े और लोडिंग वाले पर बरस
पड़े, “देखकर नहीं चला सकता!“ उसी वक्त मेरे सामने वाली गाड़ी
आगे बढ़ गई और मैंने भी झट से लूना बढ़ा दी। लोडिंग वाले ने मुझे या मेरी गाड़ी को
थोड़े ही ठोका था, जिसके घुटनों को ठोका वह जाने और उसका काम!
तीसरी घटना बहुत हालिया है और बड़ी मासूम भी। कॉलोनी की दुकान से किराने का
सामान लेकर निकल रहा था। दुकान के सामने कॉर्नर से कई स्कूल बसों से बच्चे चढ़ते-उतरते
हैं। एक बस मेरे सामने ही निकली थी। इधर मैंने अपनी बाइक स्टार्ट की कि अचानक
आठ-नौ साल की एक बच्ची कंधे पर स्कूल बैग लटकाए बदहवास-सी दौड़ती आई और लगभग रोते
हुए चिल्ला पड़ी, “अंकSSSल! मेरी बस निकल गई। अंकल, प्लीज़ अंकल! “
“वो बस? चलो
बैठो, अभी पकड़ लेते हैं।“
वह इस अंदाज़
में बाइक पर बैठी कि अभी कूदकर बस पर चढ़ जाएगी। साथ ही, “अंकल जल्दी“ बोलना नहीं
भूली। मैंने धीरज बंधाया कि बस उधर नाई की दुकान से भी बच्चों को बिठाती है ना,
अपन वहाँ उसे पकड़ लेंगे। मगर सुबह के उस वक्त कॉलोनी की मेन रोड पर ट्रैफिक काफी
रहता है और मैं वैसे ही धीरे गाड़ी चलाने के लिए कुख्यात हूँ। नतीजा यह रहा कि नाई
की दुकान तक पहुँचते-पहुँचते बस वहाँ से रवाना हो चुकी थी। अब मेरी नन्ही सवारी की
व्यग्रता और बढ़ गई। न जाने क्यों मुझे लगा कि शायद पहले भी एक-दो बार उसकी स्कूल
बस छूट चुकी है और वह उसका अंजाम भुगत चुकी है। मैंने उससे पूछा, “बस सेंट पॉल के
कॉर्नर पर भी रुकती है ना? “
“हाँ-हाँ।“
“चलो, वहाँ तो अपन उसे पकड़ ही लेंगे।“ कहते हुए
मैंने स्पीड बढ़ा दी। बस का पीछा करने में अब किसी फिल्मी सीन जैसा थ्रिल महसूस हो
रहा था। उधर नन्ही सवारी का “अंकल जल्दी, अंकल जल्दी“ जाप जारी था। सेंट पॉल स्कूल के मोड़ पर
पहुँचे, तो बस वहीं खड़ी दिखी। उसमें सवार होने के लिए बच्चों की छोटी-मोटी पल्टन
खड़ी थी। मैंने बच्ची को समझाया, “वो देखो, इतने सारे बच्चे हैं, सब चढ़ जाएंगे तभी
बस चलेगी, फिक्र मत करो।“ लेकिन वह कुछ भी सुनने के मूड में नहीं थी। मैं ब्रेक
लगाता, उससे पहले ही वह चलती बाइक से कूद पड़ी और दौड़ते हुए बस पर चढ़ गई। न कोई
थैंक यू, न बाय-बाय! अपन ने भी नेकी को दरिया में डाला, बाइक पलटाई और चल
पड़े घर की ओर।
पुनश्च:
उपरोक्त तीसरी
घटना के कुछ महीने बाद मुझे कॉलोनी की मेन रोड पर वह बच्ची फिर दिखी, बैग लटकाए, किसी
और अंकल की बाइक पर सवार, चेहरे पर वही बदहवासी का भाव। उसकी बस छूटने की आदत शायद
अभी छूटी नहीं थी। क्यों छूटे, बाइक दौड़ाकर बस पकड़वाने वाले अंकल जो आसानी से
मिल जाते हैं! पता नहीं वह थैंक यू बोलना सीखी कि नहीं…!
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