जिस तरह धीरे-धीरे पास आए थे, उसी तरह हौले-हौले अंधेरे में दूर होते गए आस्था में सराबोर स्वर। कारण समझ नहीं आया पर दिलो-दिमाग को भला-भला-सा महसूस करा गया यह अनुभव। “ प्रभातफेरी ” । इस शब्द से पहला परिचय जब हुआ, तब मैं बहुत छोटा था। नानी के घर महू गया हुआ था। अल सवेरे नींद खुली, तो उनींदे नगर के सन्नाटे में दूर कहीं से संगीत की मोहक स्वरलहरियाँ सुनाई दीं। भोर के अंधियारे में धीरे-धीरे वह आवाज़ पास आती प्रतीत हुई। नानी ने बताया, “ आज गुरुवार है ना, आजकल इस दिन साई बाबा के भक्त प्रभातफेरी निकालते हैं। ” अब वह आवाज़ काफी पास आ चुकी थी। ज़्यादा कुछ नहीं, बस झांझ, मंजीरे, हारमोनियम और ढोलक की आवाज़ थी। साथ में तालियाँ और भक्तों के कंठ से निकलते भजनों के मधुर सुर। गगनभेदी जयकारे नहीं, श्रृद्धा में झुकी-सी धीमी-धीमी आवाज़… भोर की शुचिता को पूरा सम्मान देती हुई। जैसे माँ अपने बच्चे को लगभग फुसफुसाहट भरी आवाज़ में उठाकर नींद के आगोश से बाहर लाती है कि कहीं वह चौंककर, डरकर न उठे, कुछ उस तरह। टोली ज़्यादा बड़ी नहीं थी। कुछ ही देर में घर के सामने से निकल गई और फिर जिस तरह धीरे-ध...