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Showing posts from December, 2020

“भगवान” की ताजपोशी

ऐसा लग रहा था कि खुशी के अतिरेक में वे ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे। फिर “ मतलब… ” के आगे जोड़ बैठे, “ हमारे लिए तो वो भगवान हैं। ”   अधेड़ उम्र के वे सज्जन घर में बने पापड़, अचार आदि बेचने आया करते थे। साथ ही त्योहार के आसपास गुझिया, पूरनपोली, अनारसे, गजक आदि। चुनिंदा घरों में ही जाते, जहाँ उनके नियमित ग्राहक होते। हमारे यहाँ उनका आना कैसे शुरू हुआ, ठीक से याद नहीं मगर लंबे समय तक वे आते रहे। कपड़ा मिल में नौकरी छूट गई थी, जिसके बाद यही उनकी आमदनी का स्रोत था। वे स्वभाव से ज़बर्दस्त बातूनी थे, तिस पर मेरे पिताजी चूँकि धाराप्रवाह मराठी बोल लेते थे और मराठीभाषियों से उनकी ही भाषा में बात करते थे, सो हमारे घर पर इन सज्जन का स्टॉपेज ज़रा लंबा ही खिंच जाता था। मेरी उनसे मुलाकातें कम ही होतीं, क्योंकि जब वे आते, मैं दफ्तर में होता। बात उन दिनों की है, जब कथित अण्णा आंदोलन अपने चरम पर था। मैं “ कथित ” इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरा शुरू से ही मानना था कि अण्णा हज़ारे तो महज़ मुखौटा हैं, पीछे से अन्य शक्तियाँ उन्हें संचालित कर रही हैं। कालांतर में यह बात बहुत हद तक सिद्ध भी हो गई। खैर