गंभीर विमर्श हमें बोर करता है। चीख-पुकार, अर्थहीन झगड़े, कल्पित षड़यंत्र हमें रास आ गए हैं। यह सब कोई रातो-रात नहीं हुआ है, इस भटकाव ने क्रमिक रूप से हमारे इर्द-गिर्द अपना जाल बुनकर हमें अपने पाश में लिया है। इन दिनों देश के एक बड़े राज्य में और मेरे प्रदेश के एक बड़े भाग में चुनावी शोर चरम पर है। यूँ चुनावी बेला तीखे आरोप-प्रत्यारोप, खोखले वादों और बड़बोले बयानों के लिए जानी जाती है, भारत ही नहीं बल्कि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में, मगर…। मगर इन दिनों जो देखने में आ रहा है, वह इससे कहीं बढ़कर है। भाषा की मर्यादा तो खैर कभी की लांघी जा चुकी है, प्रभावी भाषण कला के नाम पर फिल्मी ( या कहें नौटंकीनुमा ) डायलॉगबाज़ी अब आम है। साथ ही नमूदार हैं अतिरंजित भावभंगिमाएँ। गंभीर विमर्श के लिए दूर-दूर तक कोई स्थान नहीं, अति नाटकीयता का बोलबोला। हैरत यह कि इस सबसे उस आम जनता के माथे पर शिकन तक नहीं, जिसकी भलाई के नाम पर यह सारा प्रपंच चल रहा है। ऐसा लगता है कि इसे “ न्यू नॉर्मल ” के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। आखिर यह विकृति सामान्य के तौर पर स्वीकार्य कैसे हो गई ? नव-संपन्नता अपने साथ स...