संसार के भीतर एक अलग संसार देखना हो, तो इन गौरैयाओं को निहारें। वे पूरे अधिकार से मेरे आंगन में कब्जा जमाए रहती हैं। कभी मधुकामिनी की डाल पर चहचहाती, कभी चमेली की बेल पर फुदकती, तो कभी ज़मीन पर अपना आहार बीनती-चुगती या सकोरे पर जाकर गला तर करती। अल-सुबह से ही इनकी चीं-चीं शुरू हो जाती है। गोया संसार चलाने का सारा दारोमदार इन्हीं पर है। ज़रा चुप रहीं या थोड़ी देर तक सोई रहीं, तो ब्रह्माण्ड थम जाएगा ! एक समय था, जब अक्सर सुनने में आता था कि गौरैया लुप्तप्राय होती जा रही है लेकिन यहाँ बीते कई साल से ये आबाद हैं। नए ज़माने के घरों के हिसाब से इन्होंने खुद को ढाल लिया लगता है। इंसान से पहले भी इनका रिश्ता घरापे का था और अब भी वही बेतकल्लुफी कायम है। इन्हें कहने की ज़रूरत नहीं होती कि इसे अपना ही घर समझो, ये तो घर को अपना मानकर ही चलती हैं। दाना-पानी के लिए इन्हें कहीं दूर नहीं जाना पड़ता, सो पूरा दिन आँगन और उसके आसपास ही बीतता है। इनका बस चले, तो दरवाज़े-खिड़की खुले मिलने पर तफरीह करते-करते भीतर ही चली आएँ ! जब घोंसला बनाने के लिए कच्चा माल दरकार हो, तो ये हमारी नाक के नीचे से ...