जीने का ढंग कहीं जाता नहीं, बस बदलता रहता है…। कोई चार दशक पहले आई फिल्म “ बातों-बातों में ” के गीत “ उठे सबके कदम, देखो रम-पम-पम ” में एक पंक्ति आती है, “ रूप नया है, रंग नया है, जीने का तो जाने कहाँ ढंग गया है… ” । लगभग हर दौर की पुरानी पीढ़ी को नए रूप - रंग से यह शिकायत रहती आई है। और इस शिकायत को दरकिनार करते हुए जीने का ढंग नित बदलता रहा है। क्योंकि जीने के कोई ढंग शाश्वत नहीं होता। जी हाँ, जीने का ढंग कहीं जाता नहीं है, बस बदलता रहता है। हर नई पीढ़ी जीने का अपना ढंग, अपना अंदाज़ लेकर आती है। और जो अपने ही ढंग को एकमात्र स्वाभाविक, वाजिब ढंग मानते हैं, वे शिकायत करते रह जाते हैं कि जीने का ढंग जाने कहाँ चला गया…। जीने का ढंग केवल पीढ़ियाँ बदलने पर ही नहीं बदलता, कई अन्य घटनाक्रम भी इसे बदल डालते हैं। हम देख ही रहे हैं, कैसे महामारी ने देश - दुनिया में अरबों लोगों के जीने के ढंग को बदल डाला। महामारी छोड़िए, कई गैर - संक्रामक गंभीर बीमारियाँ भी रोगी और काफी हद तक उसके पूरे परिवार को जीने का ढंग बदलने पर विवश कर देती हैं। परिवार में शिशु, खास तौर पर पहले शिशु का आगमन...